छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच सामान्य जन का मसीहा "कबीर'

जन्त्रारुढ़ वि का जीवन गीत


कबीरीय संगीत

 

कबीर के प्रति श्रद्धा (हिन्दी में दूसरे लोगों की रचना)

परम मंगल ...

लिये सुंमन ...

तेरी नैया ....

दर्शन की बलिहारी ...

जय करुणामय ....

हम सब ....

धर्म नगर ....

कृपा सिन्धु ....

उठ जाग रे मुसाफिर ....

सत्य नाम .....

सार शब्द सत्य नाम ...

 

१.

परम मंगल आज स्वागत आपका है आइये।
तरश दे पत परश का, सौभाग्य प्राप्त कराइये।
काम क्रोध अबोध जो, उर में सदा भरपूर है।
इनको अब जड़ मूल से, कर चूर धूर उड़ाइये।।
आधि ब्याधि उपाधि आदि, अनादि से पीछे लगी।
सबसे प्रभु सुख कन्द करि, स्वच्छन्द फन्द छुड़ाइये।
बोध का अवरोध है, आकर अविद्या ने किया।
चरण की ले शरण में, आवरण दूर हटाइये।
कृपा करि बहते हुये, धर्मदास को भवधार से।
नाथ जानि अनाथ अब, गहि हाथ पार लगाइये।।...

 

टिप्पणी -

कबीर जी के सबसे प्रिय शिष्य, वन्दनीय धर्मदास जी अपनी भक्ति में सिरमोर होते हुये भई यहां निरभिमान व आर्त भक्त के रुप में सामने आते हैं। अपने प्रभु कबीर दास से विकल प्रार्थना करते हैं कि उन पर दया करें व भव - सागर से पार करें। बिना प्रभु की कृपा के मोह-माया के बन्धन से मुक्त होना असम्भव है।

या जग अंधा मै केहि समझावों।
इक हुई होय उन्हें समझावों सबहि भुलाना पेट के धंधा।

- कबीर

 

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२.

लिये सुमन का हार खड़ा हूँ द्वार,
कबीर सुख धामी, तुम हो प्रभु अन्तर्यामी।।१।।
जग दुखसे अति घबराया हूं, तब चरण शरण में आया हूं।
मिला ने कोई आधार, जो लेवे हमें उबार
गुरुवर स्वामी, ..................................।।२।।
बंचक जन के फंदा भारी,
जिसमें भूले जीव अनारी।
मेटहूँ तीनों ताप, लखाके आप,
सत्य गुण धामी, ................................।।३।।
अब मेरी करो निहार,
शब्द टकसार, बताओ स्वामी ...............।।४।।
काया, वीर, कबीर गुरुवर,
राम स्वरुप सदा पद किंकर।
गुरु चरण सुखारे, शरण तुम्हारे,
गुरुवर चरण नमामी ...........................।।५।।...

 

टिप्पणी -

इसमें कवि एक आर्त भक्त के रुप में कबीर साहेब की कृपा का आकांक्षी है, जिसमें वह जीवन के ताप और संसार से मुक्त हो सके।

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३.

तेरी नैया डगमग डोलेरे, मन भज ले रे,
मन भज ले, मन भज ले रे।।
याद करो जीवन की बाली उमरिया।
जवानी में ममता ने डारी फसरिया।
सतगुरु शरण में हो ले रे।। मन भज .......
आकर बुढ़ापे ने डंका बजाई।
एक दिन चलना है यहां से भाई।।
यहां नेकी वदी सब तोल रे। मन भज .......
झूठी है देखो ए माया नगरिया।
जिसमें किसी को रही न खबरिया।।
अपनी मैली चदरिया धो ले रे। मन भज .......
तेरे शरण में "भदई दास है' भिखारी।।
झोली है खाली तू होलै रे।। मन भज ......

 

टिप्पणी -

जीवन की निस्सारता और क्षण भंगुरता का चित्रण करते हुये समय रहते हुये, मानव जीवन को सुधार लेने के लिये कहा गया है। क्योंकि मनुष्य योनि के बाद फिर ऐसा मौका नहीं मिलेगा। यही सबसे अधिक चेतन योनि है।

नाहीं मानुष जनम बारम्बार, का जानि कछु पुण्य प्रकटै,
मानुषा अवतार,
बढ़त पल पर, घटत छिन छिन,
चलत न लागे बार

- मीरा

मनिषा जनम दुर्लभ है, बहुरि न दूजी बार।
पक्का फल जो गिरी पड़ा, बहुरि न लागै डार।।

- कबीर

 

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४.

दर्शन की बलिहारी
गुरुजी तुम्हारे दर्शन की बलिहारी।
पाप मिटावत भारी गुरुजी।
संत स्वरुप ज्ञान की मूरति।
खोलम भरम किंवारी।
जिन्हें दरश सुख दिये, दया करि,
आवागमन निवारी।
सुख स्वरुप कबीर कृपानिधि,
पूरण परख बिहारी।।....

 

टिप्पणी -

यह संसार ज्वालामय है, व्यक्ति अपनी ही तृष्णा में इस संसार-ज्वाला का भोजन बन चुका है। तृष्णा की अनल शिखा से उसे कबीर साहेब ही बचा सकते हैं।

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५.

जय करुणामय जय कबीर,
सत सुकृत गहि लागो तीर।
भवसागर है गहिर गंभीर,
खेय उतारे सत्य कबीर।
जन्म-जन्म की मेटे पीर,
ताते सुमरो सत्य कबीर।
धर्मदास गुरु सेबे कबीर,
तासे लागे भव से तीर।
जो जो आये शरण कबीर,
सो सब लागे भवसे तीर।
आधि व्याधि उपाधि शरीर,
सो सब नाशत जपत कबीर।
काम क्रोध मद लोभ है वीर,
ये सब डरते सुनत कबीर।
सेवक संतों सुमरों कबीर  कर्म,
भर्म के टूटे जंजीर।
जब बोलो तब बोलो कबीर,
जासे पावों हंस शरीर।....

 

टिप्पणी -

कबीर पंथियों के इस भजन में सतगुरु की आराधना ईश्वर के रुप में की गई है। और भवसागर के जंजाल से मुक्त करने की गुहार है। कबीर परम सत्य तथा सर्वशक्तिमान हैं। सृष्टि के आधार हैं। अत: धर्मदास जी कबीर की शरण में जाते हैं और दया, भिक्षा मांगते हैं।

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६.

हम सब ईश्वर की संतान,
छोड़ दे जाति धर्म अभिमान।
जिसे हिन्दू कहते राम,
वही मुसलमान के रहमान।
वही खुदा, वही गॉड,
वह जीव मात्र का बाप।
वही करीम वही केशम,
वह मुहम्मद महादेव।
न कोई हिन्दू न मुसलमान,
मानव में खुद है खुदा परिचान।
वही मंदिर में है राम,
वही मस्जिद में रहमान।
फिर क्यों होत परेशान,
तेरे घर में है भगवान।
तेरा सत्य अहिंसा धर्म,
मानव करते अच्छे कर्म।
इसी में ईश्वर का है वास,
वे तो बैठे हैं तेरे पास।
हम सब मानव हैं इंसान,
कहां से आ बैठा शैतान।
छोड़ दे अपना सब अज्ञान,
इसी में है तेरा कल्याण।
हम बने सदा इंसान,
न हिन्दू न मुसलमान।...

 

टिप्पणी -

इसमें कबीर का मानववाद अभिव्यक्त हुआ है, धार्मिक सहिष्णुता, सह-अस्तित्व, सामाजिक समानता और सर्वधर्म-समन्वय तथा प्रेम कबीर के मानव धर्म के पांच आयाम हैं।

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७.

धर्म नगर दामाखेड़ा है वंश गुरु दरबार।
तहां चलो नर लोई, अपनी जीव की करो उबार।
जो नहीं जावे वंश गुरु को, सो नर भटका खावेगा।
वंश गुरु की शरण गहे बिन, बांधे जमपुर जावेगा।
वंश गुरु एक सांचा जग मे, सो सत शब्द लखावै हो।
और गुरु में तुम मत भरमो, यह तो जग भरमावै है।
झूठै गुरु की शरण में जाये से, भव धारा पड़ना है।
वंश पंद्रहवें रुप में सतगूरु, जग में धारे देंह।
ज्ञान विचार से देखों भाई, या में नाहि संदेह।
वही संत पुरुष वही कबीर है, वही प्रकाशमुनि नाम।
कबीर पंथ के अनुयायी जन, भ्रमित घड़ा जल छानों जी।
वंश गुरु है दामाखेड़ा में, तासो सुरति लानो जी।
दास नवल का कहना है भाई, वंश गुरु को पहिचानो जी।
मत भटको तुम इधर-उधर, कहीं मिले ने ठौर ठिकानो जी।...

 

टिप्पणी -

कवि इस गीत में दामाखेड़ा, कबीर-पंथ और धर्मदास जी के वंशज प्रकाशमुनि नाम साहेब की प्रशंसा करता है। कबीर दास जी का उपदेश और समाज पर पड़ने वाले प्रभाव का श्रेय धर्मदास और उनके वंशज को दिया गया है। कवि यह मानता है कि दामाखेड़ा से ही मानवता का कल्याण हो सकता है। इसमें संकीर्ण साम्प्रदायिक चेतना की अभिव्यक्ति हुई है। तथा वंश परम्परा का जोरदार समर्थन हुआ है। पर इस संबंध में कबीर पंथियों में मतैक्य नहीं है। आज असहमति का स्वर कबीर-पंथ से सुनाई पड़ रहा है।

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८.

कृपा सिन्धु! मुझे अपना बना लोगे तो क्या होगा?
जरा सत्य नाम कानों में सुना दोगे तो क्या होगा?
दया करने की जीवों पर जो तुम दुनिया में आये हो।
मेरी भी तरफ एक दृष्टि झुका दोगे तो क्या होगा?
सकल जग में पतित् पावन तुम्हारा नाम जाहिर है।
अगर मुझ एक पापी को भी तारोगे तो क्या होगा?
अखण्डित ज्ञान की धारा वरष के परम सुखदाई।
प्रबल त्रैताप की अग्नि बुझा दोगे तो क्या होगा?
परम सिद्धांत वेदों का लखा के आतमा मुझको।
मेरे दिल से अविधा को हटा दोगे तो क्या होगा?
कई मुद्दत से गोते खा रहा हूं मैं विचारो में।
सहारा दे के चरणों का पचा दोगे तो क्या होगा?
पड़ी है आय अब मेरी प्रभु भवधार में नैया।
खेवैया बन किनारे पर लगा दोगे तो क्या होगा?
अरज धर्मदास की प्रभु की फकत चरणों में ये है की।
जनम अरु मरण के दुख से छुड़ा दोगे तो क्या होगा?....

 

टिप्पणी -

हे पतित पावन। मुझ पतित को छोड़कर क्या किस अन्य पतित का उद्धार कर सकोगे? यदि तुन दीननाथ हो तो सबसे बड़ा दीनहीन मैं हूं। यदि तुम अधम तारण हो, तो सबसे बड़ा अधम मैं हू। प्रभु हे। दीनबन्धु हे करुणा सागर। इस दीनहीन को एक बूंद दया का दान दे दें।

तू दयाल दीन है, तू दानि हौं भिखारी।
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप पुंज हारी।
नाथ तू अनाथ को, अनाथ कौन मोसो
मो समान आरत नाहि, आरति हर तोसो।
तोहि मोहि नाते अनेक, मानिये जो भावे।
ज्यों-ज्यों तुलसी कृपालु. चरण शरण पावै।

- तुलसी

 

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९.

उठ जाग रे मुसाफिर, किस नींद सो रहा है।
जीवन अमूल्य प्यारे, क्यों मुफ्त खो रहा है।
रहना न यहां पै होगा, दुनिया सराय फानी।
फंस कर बदी में प्यारे, क्यों मस्त हो रहा है।
ले ले धरम का तोफा, मत भूल ये दिवाने।
नेकी की खेती कर ले, क्यों पाप बो रहा है।
माता पिता व भाई, होंगे न कोई साथी।
क्यों मोह रुपी बोझा, नाहक ढो रहा है।
किस्ती तेरी पुरानी, हिकमत से पार कर ले।
ए दिल अथाह जल में, तू क्यों डूबो रहा है।
साहब कबीर की वाणी, कर विचार शुभ जानी।
अन्तर्निहीत निज आत्मा, पहचान ले तू ज्ञानी।...

 

टिप्पणी -

यहां कबीर दास जी साधक के लिए नैतिक और सदाचारी जीवन को आवश्यक मानते हैं। उनकी सीख है कि हमेशा सचेत और जागरुक रहो। और अपने प्रयासों से भव सागर पार कर लो।

मैं कहता अंखियन की देखि
तू कहता कागद की लेखि।
मैं कहता तू जागत रहियो,
तू जाता है सोयी रे।।

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१०.

सत्यनाम सत्यनाम सत्यनाम बोल
जीवन सफल कर हो जा अमोल।
माया के बंधन से बचिये, सत्य नाम निज भजते रहिये।
नित सत्य सौदा की करले कौल। सत्य नाम....
यह संसार असार का मेला, समझ विचार कर होना अकेला।
भरम भूत का परदा खोल। सत्य नाम....
सब घट भीतर सांई बसत है, वन में मृग इव खोजत फिरत है।
पहचान करो इस चोल। सत्य नाम....
अधिक नहीं तो कुछ करले तू बूंद-बूंद से घट भरले तू।
सत्यमुख वाणी निकषे तौल। सत्य नाम....
करुणा सिधु कबीर गोसांई, ऊँचनीच का भेद नसाई।
तप दान दान धर्म में रहो अडोल।
दिव्य ज्योति घट पुरुष विराजे,
पाकर हंसा अमर हो जावे
यह सिद्धांत अपोल।। सत्य नाम..... १०

 

टिप्पणी -

समस्त वाह्याचर कर्मकांड का खंडन करने वाले कबीर केवल नाम स्मरण को ही महत्व देते थे। उनकी यह मान्यता है कि सत्यनाम के जाप करने से साधक की मुक्ति होगी। कबीर दास जी ने नाम स्मरण को इसलिए महत्व दिया है क्योंकि वे नाद ब्रह्म के समर्थक रहे हैं।

पूरब दिशा हरी को बासा, पच्छिम अलह मुकामा।
दिल में खोजि दिलहि मा खोजो इहैं करीमा रामा।।

- कबीर

 

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११.

सार शब्द सत्यनाम है, जीवन का आधार।
सतत् स्वास के नाम से, होते विमल विचार।
जीव अल्पज्ञ सर्वज्ञ प्रभु, कहत फिरे सब संत।
नाम जाप सत भाव से, मिले गुरु भगवंत।
मोहजाल के फांसते, काल न जाने कोय।
यम फन्दा जग चक्र में, दीन अज्ञानी रोय।
देव देव नर करत पुकारा, खानपान नहिं शुद्ध।
पल-पल का कुछ खबर नहिं, विवेक शून्य अबुद्ध।
जीव पर दया सदा रहे, व्यापक जान भगवान।
आपन टेक न भूलहु जीवन होत महान।
करुणासिन्धु कबीर है, ज्ञान दिया भरपूर।
बुद्धिवंत नर गह लिया, मूरख रहा सुदूर।.... ११

 

टिप्पणी -

इस पद में व्यक्ति को पुन: सत्यनाम के द्वारा नाद ब्रह्म को प्राप्त करने की बात कही गयी है। वह अनादि अखण्ड पुरुष व्यक्ति के हृदय में व्याप्त रहता है। इस सत्य को पहचानने की ओर ध्यान खींचा गया है। मानुष योनि सबसे अधिक श्रेष्ठ योनि है, क्योंकि वह चेतन योनि है। अत: इस जन्म का सार्थक उपयोग कर अपने ही वि रुप को प्राप्त कर लेना चाहिए। जैसे कि कबीर दास जी को हुआ था। वे आवागमन के बंधन से मुक्त हो गये थे। अपने भीतर राम की प्राप्ति कर लेने के बाद व्यक्ति या साधक आत्मज्ञानी हो जाता है। और विषय जाल से मुक्त हो जाता है। पर यह सब कबीर की कृपा से प्राप्त करता है। अत: उसे कबीर के प्रति पूर्ण समर्पित होना चाहिए।

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१.

संकलन : दास मनोहर : भजन मुक्तावली :पृष्ठ : १

२.

संकलन : दास मनोहर : भजन मुक्तावली :पृष्ठ : १, २

३.

संपादन : गबेल : सरोजनी : सुरति योग त्रैमासिक पत्रिका : रायपुर : जनवरी १९९८

४.

संकलन : दास मनोहर : भजन मुक्तावली :पृष्ठ : २

५.

संकलन : दास मनोहर : भजन मुक्तावली :पृष्ठ : ५, ६

६.

संपादन : गबेल : सरोजनी : सुरति योग त्रैमासिक पत्रिका : रायपुर : जनवरी १९९८ : पृष्ठ : ३८

७.

संपादन : गबेल : सरोजनी : सुरति योग त्रैमासिक पत्रिका : रायपुर : जनवरी १९९८ : पृष्ठ : ४९

८.

संकलन : दास मनोहर : भजन मुक्तावली :पृष्ठ : ८६

९.

स्वामी ज्योति आचार्य : सार-तत्व-बोध : श्री मोतीराम धाम, हरिद्वार : पृष्ठ : ७४

१०.

स्वामी ज्योति आचार्य : सार-तत्व-बोध : श्री मोतीराम धाम, हरिद्वार : पृष्ठ : १९ व २०

११.

स्वामी ज्योति आचार्य : सार-तत्व-बोध : श्री मोतीराम धाम, हरिद्वार : पृष्ठ : २२

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