छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच सामान्य जन का मसीहा "कबीर'

लघु भारत : छत्तीसगढ़


आदिवासी क्षेत्र

जिन ढूंढा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ।
मैं बापुरो बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ।।

- कबीर

भूमिका

आरण्यक संस्कृति

आदिवासी पृष्ठ-भूमि

बोली

धर्म

(अ) धर्म

(ब) धर्म का स्वरुप

(i ) प्रकृति पूजा

(ii ) जीवपूजा

(iii ) बहु ईश्वर पूजक

(iv ) टोटम

छत्तीसगढ़ की प्रमुख जन जातियों का विवरण

गोंड़

कंवर

हल्वा

उरांव

बैगा

भैना

कमार

कोरवा

निष्कर्ष

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भूमिका :

आदिम मानव ने आंखे खोली। अंगड़ाई ली। दारुण सौंदर्य का अनंत प्रसार उसे बुला रहा था। सूरज सोना बरसाता, चंदा चांदी की ढेर लुटाता। रत्नाकारा मोती उलीच रहा था। पत्तों पर निहार कणिकाएं सदा के लिए मिटने से पहले पल भर को हंस रही थी। धरती से आसमान तक चिड़ियों की प्रभात-रागिनी की शमा बंधी हुई थी। भौरों का गुन-गुन न जाने कौन सी कथा कह रहा था। कुलांचे भरते हिरणों का झुंड न जाने कहां ले जाना चाह रहा था। झाग भरे, मद भरे, झर-झर करते पहाड़ी झरने चुपके से उसके कानों में कह रहे थे। ""जीवन सुंदर है, जीवन अनंत है, जीवन अपान है। रुको नहीं, जरो नहीं, थमों नहीं, हमारे साथ बढ़े चलो।'' सब कुछ भीगा-भीगा, सब कुछ सौन्दर्य भरा उसके सामने फैला हुआ था। कभी भीषण प्रकृति डराती, कभई रम्य प्रकृति खिल-खिला देती। बादलों का गर्जन कभी डराता तो वर्षा उसको नव जीवन देती है। कभी प्रभं-जन के प्रचंड वेग झकझोर देते हैं। तो कभी मलयज के कोमल स्पर्श प्राणों को उल्लसित कर जाते हैं। उसने जानना चाहा, समझना चाहा, पढ़ना चाहा। एक दिन भोर के प्रथम किरण के साथ उसके प्राण उड़ चले न जाने कहां शून्य नीलिमा की ओर। तब उसकी ॠषि आत्मा ने कहा - तमसो - मां - ज्योतिर्गमय!! माँ! मैं अन्धकार में हूं, मुझे प्रकाश दो। मनुष्य का विजयाभियान शुरु हो गया। इस धरती का महाभिनिष्क्रमण हुआ। मृत्युंजयी-ललाटेन्दु-नटराज का भौमिक नृत्य शुरु हो गया। इस ब्रह्माण्डीय ताल-लय के साथ ""विश्व-दर्शन'' सभ्यता और संस्कृति की राह पर चल पड़ा। आज वे यहां है, कल न जाने कहां रहेंगे। यह जीवन अनंत है, उसकी गाथा अनंत है।

आदिम मानव हमारे पुरखे हैं। यह इतिहास सफर है। यह उनकी प्रकृति के साथ अस्तित्व का संघर्ष है। उनकी जीजीविषा (Elanvital ) है। यही सभ्यता तथा संस्कृति की कहानी है। आखेट-युग और स्पुतनिक-युग दोनों श्रृंखला की कड़ियां हैं। एक अमीबा से लेकर जटिल अंतरिक्ष यात्री (एस्ट्रोनट) तक उसकी विकास की स्थितियां है। अत: आदिम मानव और वैज्ञानिक तकनीकी युग का मशीनी मानव दोनों ही मानव की कहानियां है। पहले उसका संघर्ष प्रकृति के साथ था। वह जीत गया, क्योंकि वरदायिनी मां अपने पुत्र को कभी भी हारा हुआ नहीं देख सकतीष पर आज उसके अस्तित्व की टकराहट मशीन से है, यंत्र से है, निर्जीव से है। पता नहीं कौन जीतेगा? कौन हारेगा? इस आदिम युग में वह रस राज बना। वह आलोक पर्व मनाने चल पड़ा। पर आज इस अंतरिक्ष युग में मध्यान्ह में अंधकार (Darkness at the noon ) है, और वह मुर्दा मानव। आज वह सर्वसंहार का मृत्यु पर्व मनाने जा रहा है। न जाने कौन आदिम है? कौन बर्बर है? और कौन सभ्य है? और कौन ज्ञानी है? न जाने कौन सा युग अंधकार युग है? और कौन सा युग आलोक युग है? इन दो छोरों के बीच में सभ्यता और संस्कृति की दो कड़ियां दिखाई पड़ती है। आखेट युग > पशुपालन युग > कृषि युग > उद्योग व उद्योगोत्तर युग। जब महाराज जनक ने हल जोतते हुए सीता को पाया होगा तब शायद पहली बार मशीन का उपयोग आर्थिक उन्नति के लिए हुआ होगा और मशीन के उपयोग से जीवन में इतनी स्थिरता और उन्नति आयी होगी कि सीता के रुप में संस्कृति का जन्म हुआ होगा। किसी भी अध्ययन में, इन अन्त: सूत्रों को, बाहरी जीवन के विश्लेषण में कभी नहीं विरसाना चाहिए। पर हम अपने ऐतिहासिक अध्ययन में इन तारों को भुला देते हैं और अनर्गलता की सृष्टि होती है।

चाहे छत्तीसगढ़ हो, चाहे अफ्रीका हो, चाहे अमेरिका हो, चाहे कांगो की कछार हो, या अमेजान की, पर सर्वत्र प्रकृति पुत्रों का एक ही इतिहास है। इस इतिहास कथा में उनका दिन धड़कता है। उनका जीवन लहराता है। दुख-सुख (लाइट : सैडो) की रचना करते हैं। इतिहास के तथ्यात्मक अध्ययन में तथा अपनी यांत्रिक प्रक्रिया में हम जीवन के इस उर्मिल रुप को भूल जाते हैं।

यहां हम यद्यपि छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति के अध्ययन का लक्ष्य लेकर आये हैं, पर यहां लोक संस्कृति अपने में आदिम युग से २१वीं सदी के समय प्रसार को समेटे हुए है। अत: हमारी लोक संस्कृति केवल अविकसित लोगों तक ही सीमित नहीं है। वरन् आदिम मानव से चन्द्ररोही तक सभी समाहित हैं। विकास और प्रकति की स्थितियां बहुविधि कारणों से भिन्न रहीं हैं। अत: जीवन रुप भी अलग दिखाई पड़ता है। कुछ बहुत अधिक बन गये, कुछ सामान्य रहे और कुछ आदिम। ये सब श्रृंखला की कड़ियां हैं। सभी जीवन प्रवाह के अंत: सूत्र में आबद्ध हैं। जीवन की अखण्डता और चेतना सरिता कल-कल, छल-छल बहाव यही हमारी कथा है।

सभ्यता संस्कृति की कहानियां मानव की बहुरंगी जीवन झांकियां हैं। मानव जीवन अपनी समग्रता में हमें बुला रहा है। यदि तनिक से सौंदर्य कण हमारे हाष लग जाये, तो हमारा प्रक्षास सफल हो जायेगा।

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आरण्यक संस्कृति :

आरण्यक संस्कृति भी प्रकृति की तरह खुली, उन्मुक्त, सहज समाहारी तथा समावेशी है। वह वियुक्त नहीं संयुक्त करती है। वह तोड़ती नहीं, जोड़ती है। वह अलग नहीं करती, बांधती है। आदिम जाति, आर्य, अनार्य और जितनी जातियां हैं, सभी इतिहास में मिलजुल कर एक हो गई है। ""मां वसुन्धरा की संतानें गलबाहीं डाले अपने इतिहास सफर पर न जाने कब से चली जा रही है, शायद सदा चलते रहने के लिये। क्योंकि यह सफर अनादि है, अनंत है'' जिस प्रकार दूसरी जगह पर मूल निवासियों को कत्लेआम करते हुए इतर जातियों ने अपना आधिपत्य जमाया, उस प्रकार की किसी स्थिति की परिकल्पना यहां नहीं की जा सकती। इसके सबसे बड़े उदाहरण त्रेतायुग तथा द्वापर युग के राम तथा कृष्ण के जीवन में दिखाई पड़ता है। अत: यहां पर, सम्पूर्ण भारत वर्ष में, आदिम जातियों के साथ बाहरी जातियों का समागम संपूरक रहा, विनाशक नहीं। हां वे आये, वे मिले, और वे एक हो गये। केवल एक ही परिचय शेष रहा (हिन्दुस्तानी)। अत: भारतीय सभ्यता और संस्कृति के इतिहास में आदिम और नागरिक जैसे कोई भी विभाजक रेखा नहीं है। यदि कहीं आरण्यक संस्कृति हो तो वह सभी इन धरती-पुत्रों की प्रकृति-मयत्ता में विद्यमान है। आदिवासी के बारे में अध्ययन करते समय हमें भारतीय जीवन की विशिष्ट संरचना को सामने रखना होगा।

इसी को ध्यान में रखते हुए हमने इसमें वंश-जाति-सात्यता के सिद्धान्त को अपनाया है। आदिवासी, हरिजन और पिछड़ी जातियों को अलग करने का कोई तर्क पुष्ट आधार भी नहीं है।

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आदिवासी पृष्ट भूमि :

छत्तीसगढ़ अंचल वन्य बहुल क्षेत्र है तथा इसमें यहां के मूल निवासी आदिवासी रहते हैं। इनकी अपनी संस्कृति, भाषा एवं संस्कार हैं। इन आदिवासी लोगों की खास विशेषता है -  इनका सामूहिक जीवन, सामूहिक उत्तर दायित्व और भावात्मक संबंध। सामूहिक जीवन की चेतना तथा परस्पर के प्रति रागात्मक जुड़ाव - ये दोनों बातें इतनी एकाकार हो गई हैं कि ये लोग अकेले-निजी जीवन या परिवार की बात सोच नहीं सकते। यही कारण है कि वे परस्पर की निस्वार्थ व स्वाभाविक रुप से मदद करते हैं। और एक दूसरे की जरुरतों को पूर करते हैं। इस समाज में अपने मूल रुप में कभी भी व्यापारिक लेन-देन, ब्याज, साहूकारी आदि की प्रथा नहीं रही है। जैसे, किसी को खेती के लिए बीज व मदद चाहिए सब मिलकर उसे पूरा करेंगे। जब फसल हो जायेगी वह व्यक्ति उन्हें लौटा देगा। न बेइमानी, न एहसान और न कृतज्ञता (एक सहज, सरल, प्राकृतिक सह-जीवन)।

मेहमान भी वैयक्तिक परिवार की जिम्मेदार नहीं है। ""थानागुड़ी'' का प्रबंध है। यहां बाहर से गांव में आने वाले लोग रहते हैं। सारा गांव मिलकर उनका सत्कार करता है। सहज विश्वास पर सामाजिक रीति के अनुसार व्यवहार चलता है। इनके विवाह, शिशु-जन्म आदि सभी का प्रबंध इसी रुप में होता है। कभी कोई भूले भटके यदि झगड़ा हुआ तो गांव-समाज इसे सुलझा देते हैं। अत: ये लोग शहरी जीवन की जटिलताओं व कानूनी दाँव-पेचों से अनभिज्ञ रहते हैं। आम शहरी लोगों के दाँव-पेंच से वे धोखा खा जाते हैं, शहरीलोग इनके इस नैसर्गिक-सहज, सह-अस्तित्व की भावना का दुरुपयोग करते हैं। आज इनकी दयनीय स्थिति के कारणों में यह एक प्रमुख कारण है। आधुनिकता के नाम पर अपने सहज, सरल, प्रकृतिमय, मूल्यवादी जीवन व्यवस्था से वे अलग हो रहे हैं। अब उनके सामने एक ऐसी व्यवस्था है, जो उनके लिए अभूझ है जहां वे अपने को असहाय पा रहे हैं। उनकी प्रकृति-धर्मिता आज यांत्रिक जटिलता के बीच संतुलन का बिन्दु कहां, कैसे और किस रुप में बन पायेगा। यह एक कठिन प्रश्न हो गया है।

सन् १९९१ ई. की जनगणना के अनुसार यहां ५७,१७,८६६ लोग आदिवासी हैं, जो प्रदेश की कुल जनसंख्या का ३२.१६% भाग है। इस प्रकार प्रदेश का हर तीसरा व्यक्ति आदिवासी है। साधारणत: आदिवासी प्रदेश के सघन वनाच्छादित पठारी एवं पहाड़ी भागों में निवास करते हैं तथा आर्थिक, शैक्षणिक एवं राजनीतिक दृष्टिकोण से काफी पिछड़े हुए हैं, पर अब इनमें उल्लेखनीय प्रगति रेखांकित हो रही है। यहां के आदिवासियों की लगभग ४२ उपजातियां हैं। इनमें से गोंड़ सबसे बड़ा समूह है, जो प्रदेश में सर्वत्र पाये जाते हैं। इसके पश्चात् कंवर, हल्वा, भतरा, उरांव एवं बींझवार प्रमुख बड़े आदिवासी समूह है। प्रदेश के बैगा, अबूझमाड़िया, कमार, बिरहोर और पहाड़ी कोरवा विशेष पिछड़ी आदिवासी जातियां हैं।

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बोली :

छत्तीसगढ़ी अपने नाम के अनुरुप एक समावेशी भाषा है। छत्तीसगढ़ी संस्कृति जिस प्रकार मोजाइक (Mosaic ) है, उससे सहज अनुमान होता है कि छत्तीसगढ़ी बोली की रचना में कई भाषाओं और बोलियों का योगदान है। भाषाविद् इसे "हिन्दी' का ही एक रुप अथवा अपभ्रंश मानते हैं। इस बहु प्रचलित बोली में प्राय: समस्त संस्कृतियों से संबंधित शब्द समाहित होते रहे हैं। इस बोली की लिपि "देवनागरी' है। भाषा वैज्ञानिक छत्तीसगढ़ी में कई बोलियों और भाषाओं का प्रभाव देखते हैं। यहां उत्तर से आने वाली हिन्दी, पश्चिमी से आने वाली मराठी एवं हल्वी और पूर्व से आने वाली ओड़िया तथा भतरी के मिश्रण वाली कई भाषाएं प्रचलित हैं। हिन्दी में सम्मिलित अवधी, मगधी, बघेली और भोजपुरी का स्पष्ट प्रभाव यहां की स्थानीय बोलियों में दिखाई पड़ता है।...

जिन समस्त भाषाओं और बोलियों के योग से छत्तीसगढ़ी बोली बनी है । उसके आधार पर कहा जा सकता है कि छत्तीसगढ़ी के निर्माण में संस्कृत, हिन्दी, ओड़आ, उर्दू, मराठी, तेलगू आदि भाषाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसलिए आर्य भाषा परिवार, द्रविड़ भाषा परिवार तथा उर्दू (अरबी, फारसी) और अंग्रेजों के आगमन के साथ अंग्रेजी का भी प्रभाव है। आदिवासी बोलियों का भी मिश्रण है। अत: छत्तीसगढ़ी में लोक साहित्य और शैली के गहन प्रभाव के कारण आदिवासियों की बोलियों का गहरा प्रभाव होना स्वाभाविक है। वैष्णवीय भक्तिधारा से प्रभावित होने के कारण ब्रज और अवधी का इसके निर्माण में बहुत बड़ा योगदान है। टिकस, लालटेन, टेशन, पार्सल, कार्ड आदि अंग्रेजी शब्दों का सहज प्रयोग रोजमर्रे की जिन्दगी में होता है।

अब समय आ गया है जब छत्तीसगढ़ी को संविधान के अंतर्गत भाषा की मान्यता मिलनी चाहिए। यह एक समावेशी, समाहारी, सर्वार्थ प्रकाशिनी, मूर्ति विधायनी, सांगीतिक, प्रांजल और प्रचण्ड अभिव्यंजनामयी भाषा है। आदिवासी बोलियां इसे समृद्ध और बहुवर्णी बना रही हैं। मान्यता प्राप्त अन्य भाषाओं की तरह इसमें शसक्त साहित्य तथा एक अखिल भारतीय व्यक्तित्व है। अत: वह अपनी आंचलिक विशेषता में भी राष्ट्रीय है। इसमें भाषा की समस्त विषेषताएं मिल जाती है।

""छत्तीसगढ़ ने भारतीय कला, संस्कृति और साहित्य को अनंत रत्न भेंट किए हैं। उसकी नदियों के आँचल में, घने वन-प्रांतरों में, अनेक साम्राज्य उठे और गिरे हैं। उसके पर्वतों के साए में जनजातियों ने अंगड़ाई ली है। उसके नगरों में साहित्यों का रस पका है। संगीत के तराने और पायलों की गूंज उसके रामगढ़ की गुफा-रंगशाला में ईसापूर्व तीसरी शताब्दी से ही बियाबानों में गूंजे हैं। जनपदों में मंदिरों के कलश-कंगूरे चमके हैं। तुरतुरिया की बौद्ध भिक्षुणियाँ तथा सिरपुर की हर्मिकाएं उसके आकाश के शून्य को भरती रही हैं और चीन से जो कारवाँ चले हैं, उन्होंने सिरपुर में ही अपने मकरबंद खोले हैं।''...

डॉ दयाशंकर शुक्ल के मतानुसार - ""'छत्तीसगढ़ के नैसर्गिक वैभव की भांति इसका लोक साहित्य भी अत्यंत समृद्ध और हृदयग्राही है। लोगों की उदार मनोवृत्ति और उनके आदर्शों की छाप गीतों, कथाओं और वार्ताओं में, विद्यमान है। छत्तीसगढ़ी-लोक साहित्य में सीमावर्ती प्रदेशों महाराष्ट्र, ओड़ीसा, आंध्रप्रदेश, उत्तरप्रदेश एवं बिहार में प्रचलित कथाओं औैर गीतों आदि से अत्याधिक साम्य दृष्टिगोचर होता है।''...

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धर्म :

(अ)

धर्म

यहां की जनजातियों में धर्म का महत्वपूर्म स्थान है। इनका संपूर्ण जीवन काल धर्म पर ही आधारित रहता है। इनकी अधिकांश परंपरायें हिन्दू धर्म के अनुरुप ही है। ये हिन्दू देवी-देवताओं को प्रधानता तो देते हैं, साथ ही साथ इनके अपने देवी-देवता भी हैं जो हिन्दू शास्रों में नहीं मिलते। जनजातियों में महादेव एवं महामाया की पूजा का प्रचलन है। बैगा को इनमें पुजारी का स्थान प्राप्त है। देवी-देवताओं को प्रसन्न करने हेतु इनमें बलि देने की परंपरा है। ये विश्वास करते हैं कि सभी में आत्मा होती है। इस आधार पर नदी, पर्वत, पशु, पौधे एवं मृतात्मायें पूज्य हैं। कुछ जनजातियों में पूजा स्थल "सरना' कहलाता है। यह इनका देव स्थान है। गांव के वार्षिक पर्व, त्यौहार एवं पूजा का कार्य यहीं संपादित होता है।...

(ब)

धर्म का स्वरुप ...

प्रकृति पूजा - घने जंगलों और ऊंचे पहाड़ों के बीच जीवन यापन करते हुए ये प्रकृति की संघटनाओं से सीधा संपर्क रखते हैं। धारासार वर्षा, आंधी और तूफान, जंगल की विकराल आग इन सबका उन्हें सामना करना पड़ता है। इन प्राकृतिक घटनाओं को वे देव की कृपा या देव का कोप मानते रहे हैं। अत: प्रकृति पूजा की अवधारणा इनमें अत्याधिक विकसित रही है। किसी अवांधित प्राकृतिक विपत्ति को अपने पक्ष और हित में करने के लिए आभिचारिक क्रिया कर देव को प्रसन्न करने की मानसिकता के पीछे भी यही तर्क स्पष्ट होता है। संक्षेप में प्रकृति पूजा के संदर्भ में उनका विश्वास है कि कुछ ऐसी अलौकिक शक्तियां हैं, जो मनुष्य के वश में नहीं है और उन्हें प्रसन्न किया जाना चाहिए।

जीवपूजा - छत्तीसगढ़ की जनजातियां जीव पूजक हैं। इनका जीववाद पर पूर्ण विश्वास है। वे जानते हैं कि जीवन की सत्ता है और उसकी वही जरुरतें हो सकती हैं जो भौतिक जीवन में थीं। अत: मृतक संस्कार के समय मृतक के साथ उसकी प्रिय शराब, तंबाखू एवं कुछ अन्य सामग्रियां भी साथ रख देते हैं। नामकरण संस्कार में भी यह जानने की कोशिश की जाती है कि शिशु में उनके किस पूर्वज की आत्मा का वास है, ताकि तदनुरुप नाम रखा जा सके। इसके आलावा कुछ अच्छ धार्मिक एवं सामाजिक अवसरों पर वे किसी अति परा भौतिक घटनाओं को टालने के लिए जीव / आत्मा की शांति हेतु पूजा करते हैं। बलि भी देते हैं।

बहु ईश्वर पूजक - जन जातियों के प्रत्येक गांव / समाज के अपने-अपने देवी-देवता होते हैं। मड़ई (मेला), सामाजिक संस्कारों एवं कृषि कार्य के विभिन्न अवसरों पर इनकी पूजा-अर्चना की जाती है। जीवन के हर पहलू में देवी-देवताओं का संबंध होना ये स्वीकारते हैं। इन्हें गीत-संगीत से प्रसन्न किया जाता है। इनके देवी-देवता लकड़ी, पत्थर के बने होते हैं। कभी-कभी ते ये पत्थर या लकड़ी की ही पूजा कर लेते हैं। कुछ स्थानों पर कपड़े के छोटे टुकड़ों की पूजा देखी जा सकती है। परंतु कुछ मूर्तियां सुंदर नक्काशी करके भी बनाई जाती है।

टोटम - छत्तीसगढ़ के आदिम समाज में मानव समुदायों के बीच संबंधों के अनेक रुप मिलते हैं। साथ ही उनमें पशु और प्राणी जगत के साथ भी संबंधों के अनेक रुप दिखाई पड़ते हैं। इन संबंधों को टोटमवाद कहा जाता है। यहां का आदिवासी अपने को किसी प्रकार के टोटम से संबंध मानता है। उनसे अपना आनुवांशिक रिश्ता जोड़ता है। यह टोटम या तो कोई जानवर होता है या कोई पक्षी या वृक्ष होता है। इन संबंधों के आधार पर वे इनके प्रति अनेक अंध-विश्वासों, श्रद्धा-भक्ति और आदर के भाव से भरे होते हैं। ये टोटम की विशेष पूजा आराधना करते हैं। यदि टोटम पर कोई विपत्ति आती है तो संबंधित जनजाति पर विपत्ति संभावित मानी जाती है। इस तरह टोटम में धार्मिक तथ्यों और सामाजिक संगठन का अनोखा संयोग देखने को मिलता है। जहां तक संभव है वे इन प्रतीकों को छूना, मारना, खाना पसंद नहीं करते हैं।

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छत्तीसगढ़ की प्रमुख जनजातियां

छत्तीसगढ़ में निवासरत् (४२) बयालिस अनुसूचित जनजातियों में प्रमुख जनजाति ""गोंड़'' है। इसके अतिरिक्त कंवर, बिंझवार, भैना, भतरा, उरांव, मुंडा, कमार, हल्वा, बैगा, सावरा, कोरवा, मारिया, नागेशिया, मझवार आदि जनजातियां राज्य में पर्याप्त संख्या में है। शेष जनजातियों की संख्या कम है।

छत्तीसगढ़ की प्रमुख अनुसूचित जनजातियों का विवरण इस प्रकार है - ...

गोंड़ - छत्तीसगढ़ की प्रमुख जनजाति गोंड़ है। यहां पर ये बहुतायत में है। इसका वास्तविक नाम "कोईतुर' है। इसका पारम्परिक व्यवसाय शिकार तथा मछली पकड़ना था किन्तु अब ये कृषि एवं अन्य संबंधित व्यवसाय भी करने लगे हैं।

कंवर - कंवर जनजाति मुख्य रुप से राज्य के पठारी भाग रायगढ़, सरगुजा तथा बिलासपुर जिलों में निवास करती है। ये जनजातियां स्वयं को महाभारत के कौरव वंश का वंशज मानती हैं। इसका पारम्परिक व्यवसाय सेना में कार्य करना था, पर अब ये लोग कृषि-कार्य तथा खेतिहर मजदूरी करके अपना जीवनयापन करने लगे गये हैं।

हल्वा - छत्तीसगढ़ के दक्षिण में स्थित रायपुर तथा बस्तर में निवास करने वाली हल्वा जनजाति आर्थिक तथा सामाजिक दृष्टि से अन्य जन-जातियों से अधिक सम्पन्न है। इन जनजातियों की बोली में ओड़आ, मराठी तथा छत्तीसगढ़ी बोली का मिश्रण है। इस जनजाति के लोगों ने "कबीर पंथ' को स्वीकार कर लिया है। ये जनजातियां मांस, मदिरा को अस्वीकार करती हैं।

उरांव - बिलासपुर संभाग के रायगढ़, जशपुर तथा सरगुजा जिलों में निवास करने वाली उरांव जाति को "धांगर' के नाम से भी जाना जाता है। जिसका अभिप्राय विशेष शर्त पर रख गए "कृषि-श्रमिक' है। इस जनजाति की मुख्य बोली "कुरुख' एवं "ओरांव' है।

बैगा - ये जन-जाति बिलासपुर तथा दुर्ग जिले में निवास करती है। इनकी उत्पत्ति के संबंध में कहावत है कि ईश्वर ने पृथ्वी पर प्रथम मानव के रुप में "नंगा-बैगा' तथा "नंगी-बैगिन' के रुप में उत्पत्ति की, जिनकी दो संतानें हुई, एक "बैगा' और दूसरी "गोंड़'। इस जनजाति के देवता "बूढ़ा देव' है जो "साजा' वृक्ष पर निवास करते हैं।

भैना - जिला बिलासपुर में निवासरत् भैना जनजाति कंवर तथा बैगा का सम्मिश्रण माना जाता है। इनकी उपजाति पहला झलयार तथा दूसरी घटयारा है।

कमार - जनजाति राज्य की विशेष पिछड़ी जनजाति के रुप में जानी जाती है। ये जनजातियां रायपुर जिले का गरियाबंद तहसील में निवास करती है। इस जनजाति की बोली "कमारी' कहलाती है। इसमें हल्वी, ओड़िआ और छत्तीसगढ़ी का प्रभाव है।

कोरवा - यह जनजाति बिलासपुर, रायगढ़ तथा सरगुजा जिले में निवास करती है। ये लोग प्रमुखत: "कोर-बोर', "सिंगली' तथा "कोरवा' बोलियां बोलते हैं। भारत सरकार द्वारा इस जनजाति को अत्यंत पिछड़ी हुई जनजाति घोषित की गई है।

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निष्कर्ष :

आज हम आर्य-अनार्य आदिम नागरिक, सभ्य-असभ्य आदि के रुप में विभिन्न जातियों का परिचय नहीं दे सकते । हजारों साल के सान्निध्य संपर्क और समागम से सबी जातियां सांस्कृतिक रुप से एक दूसरे से घूल-मिल गई है। आदान-प्रतिदान के प्रक्रिया में ग्रहण और त्याग का कार्यक्रम चलता रहा। विशिष्ट रुप से अपने निजी व्यक्तित्व में आज कोई भी नहीं है। सामन्जस्य, संतुलन और समन्वय की परंपरा में कोई कब तक अलग रह सकता है? भारतीय संस्कृति आज वि की प्राचीनतम् जीवित संस्कृति है। इसका कारण शायद यही मेल और मिलाप है। समय की मांग के अनुरुप यहां परिवर्तन तथा परिवर्धन दिखाई पड़ता है। यह शुभ लक्षण है। कहीं पर यह परिवर्तन की प्रक्रिया तेज या कहीं पर धीमी है। पर आज ऐसा हो नहीं रहा है। आज अति सभ्य अंतरिक्ष-युग के मानव से इन्हें कहीं ज्यादा सुरक्षित शेर, भालू लग रहे हैं। इनका विकास अवश्य हो पर इनकी दृष्टि से और इनके जीवन, परंपरा, परिवेश इनके शक्ति-स्रोत आदि इनसे छीन न लिये जायें। इन्हीं आदिवासी जातियों में से कुछ लोग आधुनिक नागरिक सभ्यता से परिचित हो चुके हैं। आज वे अपने पारंपरिक समाज को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। हमें आदिवासियों के समग्र विकास में इन जटिल ग्रंथियों को सुलझाना पड़ेगा और यह भी देखना होगा कि अपने मूलरुप को सुरक्षित रखते हुए राष्ट्रीय विकास की प्रमुख-धारा में ये कैसे शामिल हो सकें।

 

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१. संपादन : रायजादा के. मधुमोद; प्रतियोगिता साहित्य सीरीज; साहित्य भवन पब्लिकेशन, आगरा; २००० एवं २००१; पृष्ठ ६२-६३
२. पत्रिका : जनमत स्वर; मई प्रथम; पृष्ठ ६
३. तिवारी श्रीमती भारती : छत्तीसगढ़ के लोग गीतों की परंपरा; वैविध्य के संदर्भ में; गोरा गीतों का सांस्कृति अनुशीलन; अप्रकाशित शोध प्रबंध; गुरु घासीदास विश्वविद्यालय, बिलासपुर; वर्ष २००१
४. शर्मा, रामगोपाल; छत्तीसगढ़ दपंण; पृष्ठ २९
५. महापात्र, मनीषा; जिला दंतेवाड़ा के आदिवासियों का सामाजिक परिवर्तन; अप्रकाशित शोध प्रबेध; गुरु घासीदास विश्वविद्यालय; २००१
६.

संपादन : रायजादा के मधुमोद; प्रतियोगिता साहित्य सीरीज; साहित्य भवन पब्लिकेशन, आगरा; २००० एवं २००१; पृष्ठ ५२-५४

 

 

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