छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच सामान्य जन का मसीहा "कबीर'

जन-नायक - कबीर


आमुख : जन - नायक - कबीर
(विश्वविद्यालय परिसर से आगे)

उस दिन जब ढल मल करते तारों भरे आकाश को देखकर नचिकेता-कबीर अपने भोलेपन में बोल उठा था -

आकासे देसे केते तार
कौन चतुर ऐसा चितरन हारा।

तब हौले-हौले झलमलता आकाश उसकी सम्वेदनशील बाहों में सिमट गया था। एक जीवन रागिणी धरती पर कल्लोल-क्रीड़ा कर उठी थी। सभ्यता संस्कृति की अशेषधारा फूट पड़ी थी और आदिम मानव के कदम इतिहास-सफर पर चल पड़े थे। मनुष्य की इतिहास-यात्रा, कभी न खत्म होने के लिये एक बार शुरु हो गयी थी। अनेक प्रकार के उत्थान-पतन के बीच, गिरी-उपत्यकाओं में कबीर के एक तारा की आवाज गूंज रही थी। बन्जारा कबीर घूम-घूम कर, कण-कण में अलख जगा रहा था। ""देश-विदेश हों फिरा गांव-गांव की खोरी''। इतिहास के सारे जख्मों को लेकर और बेहद अन्तर्ग्रस्त, जटिल भारतीय समाज की समस्त उलझनों को अपनी झोली में भरे वह चला जा रहा है - अपने जनपदीय-संसार के पास जहां-भारत मां हमसे मिलना चाहती है। कबीर का काव्य भारतीय समाज की तरह बाहर से सरल पर भीतर से अत्यंत जटिल, अनेकार्थी तथा असंख्य व्यंजनामयी है। इसकी बहुरंगी आभा न जाने हमें कितनी पर्त-दर-पर्त जीवन की झांकिया दिखाती है, और उसके अबूझ रुपों को खोलती है, जिसे न हम पूरा समझ सकते हैं और न ही कह पाते हैं पर, कबरी के काव्य की विभिन्न भंगिमायें भारतीय जीवन की "मोजाइक' रुप छटा को चित्रित करती हैं।

दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यापकीय जीवन में लम्बे समय तक कबीर पढ़ती-पढ़ाती रही हूं। पर, हमेशा अपने अध्यापन के दौरान यह महसूस करती रही हूं कि कहीं पर कोई केन्द्रीय आशय छूट रहा है। तथा पकड़ने के प्रयास में वह और भी दूर छिटक जाता है।

कबीरीय जीवन दृष्टि के जनपदीय-संभार को समझे व जाने बिना इसका उत्तर सम्भव नहीं है। कबीर का मानव मन गढ़ने का और "आम आदमी' और "वि मानव' को एकाकार करने का जो दुर्वह प्रयास था, वह अकथनीय है। अत: अतीत के धुंधले में से किसी चमकीले पदार्थ को ढूंढ पाना दुसाध्य ही नहीं, जोखम से भरा भी है। केवल कबीर के साथ हम गाना चाहते हैं -

अकथ कहानी प्रें की, कहता कही नहीं जाई।
गूंगा केरी सरकरा, खाये और मुसकाई।।

-कबीर

पर क्या आज हमारे लिये यह संभव है ? आज :

१.

प्रेम कहाँ ?

२.

कहानी कहाँ ?

३.

सरकरा (खांड) कहाँ ?

४.

मुसकाना कहाँ ?

१.

प्रेम एक व्यापारिक वस्तु है,

२.

फिर किसकी रागरंजित कथा है ?

३.

वह एक पदार्थ है। न खट्टा, न मिठा। "खांड' है कहाँ?

४.

फिर खाकर मुसकुरायेगा कौन ?

रोबर्ट ? फ्रैकास्टान? या एस्ट्रोनट?

पर क्या जन्त्रारुढ वि का मेधावी मानव प्रेममग्न होकर मुस्कुरा सकरा है ? वह तो कैप्सूल में बंद (अंतरिक्ष यात्री) बन ब्राह्मांड में चक्कर लगा रहा है। फिर राग भरे, रंग-भरे और प्राण भरे जीवन गीत को कौन सुनेगा? प्रेम की मीठी खांड कौन खायेगा? फिर कृष्ण कन्हैया बन कर कौन मुस्कुरायेगा? बस यहीं पर आकर थमना पडता है।

विश्वविद्यालय परिसर से आगे गिरीकान्त में उस "इत्यादि जन' के मसीहा को जंगल-जंगल, पहाड़-पहाड़ ढूंढना पड़ता है, जहां पहाड़ी झरनों में उसकी आवाज गूंज रही है। जिसकी बीहड़-रमणीयता-कबीर के काव्य के दारुण-सौन्दर्य को बताती है।

छत्तीसगढ नया राज्यहै। अभी इसका विकास ज्यादा नहीं हुआ है। चारों ओर से विकास की आवाजें आ रही है। यह विकास का दौर उसे कहाँ पहुँचायेगा, और किस रुप में, यह कहा नहीं जा सकता। छत्तीसगढ आदिवासी क्षेत्र है। यहां कबीर-पंथ का पर्याप्त प्रचार-प्रसार है। इतिहास प्रसिद्ध महामना धर्मदास जी की वंशगद्दी परम्परा भी दामाखेड़ा में स्थापित है। प्रकृति की हरीतिमा का प्रसार, यहाँ के जनजीवन में दिखाई पडता है। आज भी परम्परा, मूल्यवादिता, संबंधों की सुकुमारता और रागात्मकता तथा राष्ट्रीयता का भाव आदि बातें यहां के लोगों के जीवन और व्यवहार में सहज ही देखी जा सकती है। मन में उत्सुकता जगी कि इस (मनी-मार्केट और मशीन) के अबाध प्रसार युग में, आदिवासी क्षेत्र में अंतरिक्षवासी और वनवासी के बीच कोई संबंध सूत्र है या नहीं ? अर्थवाद और मूल्यवाद दोनों का अन्त: संबंध क्या है? एक ओर आधुनिकी यान्त्रिकता, पूंजी, प्रगति, भूमण्डलीयकरण, मानकीकरण, निरपेक्ष ज्ञान और रागरहितता की पूरी अक्षौहिणि सेना खड़ी है, तो दूसरी ओर जीवनमूल्य, परम्परा, सजल संबंध, नन्हें जीवन रुप, मानव के घरौदे आदि की अकिंचिन टोली हारी-होड़ लगाने को प्रस्तुत है। ऐसी स्थिति में आज के वि जीवन में छत्तीसगढ और आदिवासी संस्कृति की भूमिका और प्रदेय क्या है? जानने या समझने की इच्छा स्वाभाविक है।

सांप्रतिक युग की केन्द्रीय समस्या है भोगवाद - पैसा, बाजार और मशीन उसी की परिणितियाँ हैं। इस अमानवीयकरण की प्रक्रिया में केवल मानव ही अप्रासंगिक है, उसके अलावा शेष सभी चीजें प्रासंगिक। वग (मानव) पदार्थ में बदल चुका है। अमानवीयकरण की प्रक्रिया के नीचे उसके जीवन मूल्य रौदे जा चुके हैं। मानवीयकरण के रोड-रोलर ने आदिम "पुष्प-गुच्छों' को रौंदकर यंत्र सत्ता के आवागमन के लिये चौड़ी सड़कें (High-ways ) बना दी हैं। इस हारे, थके व टूटे विश्वमानव को छत्तीसगढ का वनवासी कौन सा जीवन सन्देश दे रहा है ? एक मानवीय दुनिया गढ़ने के लिये कौन से जीवन रुप और प्रेरणा दे रहा है? यदि यह तथ्य खुल सके तो वह सबसे लिये अच्छा रहेगा।

विकास की "सुरसा' आज मानव की सब उपलब्धियों को लीलने के लिये मुंहबाये खड़ी है। कबीर का प्रेम / जनचेतना / जनपदीय-व्यक्तित्व / मानव के मन के गढ़ने का प्रयास / विश्वशांति का सन्देश / सम्वेदनात्मक मानव / सापेक्ष ज्ञान / निरपख भगवान / अविशेष-विशेष-मानव / विविधिता में एकता / आदि बातें प्रतिकूल परिस्थितियों में अपनी भूमिका कर पायेंगी या नहीं? यह बता पाना आज संभव नहीं है। पर फिर भी जहां कबीर है - वहां धरती की चेतना बहुत दिनों तक दबी नहीं रह सकती। शायद छत्तीसगढ़ की हरीतिमा में से परती-धरती (ज़ठ्ठेsद्यe-ख्रठ्ठेदःड्डी) फिर से हरिभरी हो जाये। वनवासियों की स्वर लहरियों से फिर से जीवन-रागिणी फूट पड़े। उनके मृदंगों की थाप पर यह युग आदिवासियों के साथ थिरक उठे। थका हारा पथिक उनके ""थाना-गुड़ी'' में एक प्राणभरी यामिनी का अनुभव कर सके, और उनके ""घोटूल'' से कोई स्वर उभरे।

''अकथ कहानी प्रेम"" की, कहता कही नहीं जाई।
गूंगा केरी सरकारा, खाये औ मुस्काई।।

-कबीर

कुछ इन्हीं भावनाओं से प्रेरित होकर मैंने - आदिवासियों के बीच कबीर को देखना चाहा। ऐसी जनश्रुति है कि सबसे पहले छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्र में कबीर का प्रवेश एवं गुरुनानक देव जी के साथ उनकी भेंट अमरकंटक के पास हुई थी। आज भी वहां कबीर चबूतरा है जो इस अभूतपूर्व घटना के इतिहास को सुना रहा है। ""गुरुनानक देव जी कबीर साहब से कई बार बार मिले। अमरकंटक, वाराणसी और गिरनार पर्वत पर कबीर साहब और गुरुनानक देव की मुलाकात की चर्चाएं आती है। ""

इसलिए मैंने बिलासपुर को केन्द्र बनाया। यह क्षेत्र बिलासपुर के गौरेलापेण्ड्रा ब्लॉक के पास है। कबीर का किसी आदिवासी क्षेत्र में शायद यह पहला प्रवेश था।

कबीर-पंथ की छत्तीसगढ़ी-शाखा का प्रथम प्रचार महामना धर्मदास जी के सुपुत्र चूड़ामणि नाम साहेब ने कुदुरमाल से किया था, जो कि बिलासपुर संभाग के अंतर्गत आता है। जहां से कार्य प्रारंभ होता है, वह जगह व्यापक प्रचार और प्रसार के लिए आधार का काम करती है। लोगों का तो यहां तक विश्वास है कि यहां की प्रकृति की हरी-भरी गोद ने कबीर को आत्मचिंतन और ध्यान में थोड़ी देर के लिए मगन कर दिया था। अत: यह घुमक्कड़ संत यहां तनिक देर के लिए बिरम गया था। दूसरा महत्वपूर्ण केन्द्र रतनपुर भी बिलासपुर में है। इसके अलावा खरसिया, जशपुर, चांपा, सरगुजा आदि अन्य केन्द्र भी बिलासपुर संभाग के अंतर्गत आते हैं। इसाई और मुसलमान भी अपने-अपने धर्मपालन के साथ कबीर के प्रति श्रद्धा रखते हैं। यह सब स्फूर्तिदायक बाते हैं। बिना किसी ठोस प्रमाण के अनुमान, कल्पना, विश्वास आदि के आधार पर यह कार्य आरंब होता है। यह तथ्यात्मस नहीं, अन्वेषणात्मक कार्य है। अत्यल्प समय में उमड़ते जन-सागर के किसी कोने को समझ पाना भी अतीब अठिन है। हां किनारे पर टकराने वाली लहरों के "फेनिल सौंदर्य' में से कुछ झाग-भरे टुकड़ों को पाने और परखने का प्रयास किया गया है। इसमें हमारी टीम को कितना सफलता मिली है - यह तो समयाधीन है।

इस प्रकार के कार्य किसी एक व्यक्ति के द्वारा संभव नहीं हो सकते। सक्रिय रुप से यदि कुछ लोगों के सहयोग की जरुरत होती है, तो पृष्ठ भूमि, प्रेरणा, रुकावटों के निराकरण और अन्ततोगत्वा समग्र अध्ययन व समापन के लिए जाने-अनजाने बहुत लोगों की मदद लेनी पड़ती है। इसके लिए मैं और मेरी टीम सभी के प्रति आंतरिक रुप से आभारी हैं।

सर्वप्रथम मैं कबीर पंथ के विभिन्न श्रद्धासपद आचार्य तथा अन्य लोगों को अपनी और अपनी टीम की ओर से धन्यवाद देती हूं। जिनके सहयोग के बिना इस काम का हो पाना नामुमकिन था। मैं मुख्यमंत्री जी की भी आभारी हूं जिन्होंने कार्य की अनुमति दी और हम सबों का उत्साह बढ़ाया तथा सहयोग का आश्वासन दिया। इस कार्य को ठोस रुप देने का काम "जनपद सम्पदा' (I.G.N.C.A. ) नई दिल्ली ने किया। जितनी तत्परता के साथ उन्होंने हमारे आग्रह को स्वीकारा और हमें हर प्रकार से प्रोत्साहन देते हुये वित्तीय सहायता दी, हम सब उसके लिये कृतज्ञ है। यह राष्ट्रीय संस्था राष्ट्र के सांस्कृतिक जीवन में सामान्य रुप से तथा आदिवासियों के जीवन में विशिष्ट रुप से जो अन्वेषणात्मक कार्य करवा रही है वह स्तुत्य है। राष्ट्रीय जीवन में इस भूमिका का स्थायी महत्व है। मैं गार्गी कॉलेज और डॉ हेमा राघवन (प्राचार्या) की भी व्यक्तिगत रुप से कृतज्ञ हूं, जिन्होंने इस कार्य को सम्पन्न होने देने के लिए "प्रोजेक्ट' की जिम्मेदारी ली। श्री समय लाल निर्मलकर इस कार्य में आदयंत सहयोगी के रुप में प्रत्यक्ष रुप से जुड़े रहे। उनके बिना इस नये क्षेत्र में काम को पूर कर पाना कितनी बड़ी चुनौती होती, मैं आज इसका अंदाजा नहीं लगा पा रही हूं। वे स्वयं कबीर-पंथी हैं। इसलिए यह कार्य उनका अपना था। इस कार्य के साथ हम सब उनके साथ इतने दिनों तक कार्य करते रहे, यह एक सुखद और प्रेरणादायक अनुभव है। निर्मलकर जी की तरह कार्यकर्ताओं की आज कबीर-पंथ को जरुरत है। डॉ. मनीषा महापात्र, सहायक प्राध्यापक (समाजशास्र) और श्री के. एम. महापात्र सहायक आयुक्त आदिवासी विकास दोनों का सक्रिय सहयोग हर क्षेत्र में हर स्तर पर मिला। दोनों ही आदिवासियों के साथ घुलमिल गये हैं। इसलिए उनका सहयोग मेरे लिए एक बहुत बड़ा सहारा सिद्ध हुआ। मैं और मेरी टीम इसके लिए अनुगृहित है। श्री गुरुचरण गंगोत्री, श्री सोहन सिंह पटेल और श्री कार्तिक राम टोन्डर ये तीनों मेरे सहयोगी हैं। काया और छाया की तरह हम इतने दिनों से डोल रहे हैं। हम अलग ही कहां जो धन्यवाद दूं। बस यह उन्हीं का प्रयास है, कठिन परिश्रम है। इसकी यदि कहीं कुछ उपलब्धि है, तो यह उनकी लगन, हार्दिक सहयोग और कठिन परिश्रम के कारण है। इस कार्य की जो सीमायें है, वह मेरे निर्देशन की परिसीमा है। इसका दायित्व केवल मुझ पर है। जब सम्वाद के परिच्छेद में जिन लोगों ने अपना समय और सहयोग देकर इस रिपोर्ट को अधिक सम्पन्न बनाया, उनके लिए मैं और मेरी टीम हृदय से आभारी हैं। इसके अलावा जाने-अनजाने जिसका भी सहयोग हमें इस कार्य में मिला, मैं और मेरी टीम उनके एहसानमन्द हैं।

केवल इतना ही कहूंगी - कि यह एक नगण्य सी शुरुआत है - जाना दूर-बहुत दूरऽऽ बहुत दूर ऽऽऽ है। कबीर की आवाज सुनाई पड़ रही है - ""धर्म के नाम पर लड़ना अधर्म है।''

लंबा मारग दूरि घर, बिकट पंथ बहु मार।
कहौ कबीर क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि दीदार।।

-कबीर

 
१.

संपादन : श्रोतिय प्रभाकर; वागर्थ मासिक पत्रिका; भारतीय भाषा परिषद; मार्च / अप्रेल २०००; पृष्ठ १७१

 

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