मलिक मुहम्मद जायसी

जायसी का बचपन

जायसी बाल्यावस्था में ही अनाथ हो गये और साधु- फकीरों के साथ दर- दर भटकते फिरते थे। जायसी ने अपना बचपन के कुछ दिन अपने ननिहाल मानिकपुर में गुजारा। आपको एक साथ कई प्रकार की कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। एक तो आप अनाथ, दीन- हीन अवस्था, दूसरे साधू- फकीरों का संग। इसके साथ इनकी तीव्र बुद्धि और सर्वोपरि सहजात ईश्वरीय प्रेम, इन सभी ने मिलकर आपको अंतर्मुखी और चिंतनशील बना दिया। आपने अपनी सारी शक्ति परम सत्ता की ओर लगा दिया। संयोगवश आपको इसमें कामयाबी भी मिली।

जायसी की विशेषताओं को परख कर मीर हसन देहलवी ने लिखा है :-

थे मलिक नाम मुहम्मद जायसी।
वह कि पद्मावत जिन्होंने हे सिखी।।
मर्दे आरिफ थे वह और साहब कमाल।
उनका अकबर ने किया दयाफ्त हाल।।

होके मुश्ताक बुलवाया सिताब।
ताकि हो सोहबत से उनकी फेजयाब।।
साफ बातिन थे वह और मस्त- अलमस्त।
लेकिन दुनिया तो है, जाहिर परस्त।।

थे बहुत बद्शकल और वह बदकवी।
देखते ही अकबर उनको हंस पड़ा।।
जो हंसा वह तो उनको देखकर।
यों कहा अकबर को होकर चश्मतर।।

हंस पड़े भारी पर ऐ तु शहरयार।
याकि मेरे पर हंसे अख्तियार।।
कुछ गुनाह मेरा नही ऐ बादशाह।
सुर्ख बासन तु हुआ और मे स्याह।।

असल में माटी तो है सब एक जात।
अख्तियार उसका हे गो है उसके हाथ।।
सुनते ही यह हर्फ रोया दादगर।
गिर पड़ा उनके कदम पर आनकर।।

अलगराज उनको व एगाजे तमाम।
उनके घर भिजवा दिया फिर वस्सलाम।।
साहबे तासिर हैं जो ऐ हसन।
दिल पर वारता है असर उनका सुखन।।

जायसी एक किसान

मलिक मुहम्मद जायसी एक गृहस्थ किसान के रुप में ही जायस में रहते थे। वे आरंभ से बड़े ईश्वर भक्त और साधु प्रकृति के माने जाते हैं। उनकी यह आदत थी कि जब वह अपने खेतों में होते, तो अपना खाना वहीं मंगा लेते थे। वह अपना खाना अकेले कभी नहीं खाते थे। इस क्रम में जो भी आसपास मिलता, उसे बुलाकर अपने साथ बैठाकर खाना खिलाते थे। एक बार वह अपना खाना लेकर काफी देर तक बैठे रहे और किसी के आने का इंतजार करते रहे। बहुत देर के बाद एक- एक कोढ़ी दूर दिखाई दिया। जायसी ने उसे पास बुलाया और बड़े प्यार से अपने साथ खाने को कहा और दोनों एक ही बरतन में खाना खाने बैठ गए। दूसरे व्यक्ति के शरीर से कोढ़ चू रहा था। उसके शरीर का थोड़ा मवाद उसके खाने में गिर पड़ा। जायसी ने उस अंश को खुद खाने के लिए उठाया, पर उस कोढ़ी ने उसका हाथ थाम लिया और स्वयं खाने को कहा । जायसी को साफ हिस्सा खाने का इशारा किया। जायसी ने झट से उस अंश को खा लिया। 

इस घटना का उस कोढ़ी पर बहुत प्रभाव पड़ा और वह जायसी के पीछे हो गया। इस घटना के उपरांत जायसी की मनोवृति ईश्वर की और भी अधिक हो गई। उक्त घटना की ओर संकेत इस प्रकार किया गया है--

बुंढहिं समुद समान, यह अचाज कासों कहो।
जो हेरा सो हैरान, मुहम्मद आपुहि आपु महै।।

जायसी एक सच्चे भक्त थे। वे बड़े ही सच्चरित्र, कर्तव्य- निष्ठ और गुरु भक्त थे। ईश्वर के प्रति उनकी आस्था आपार थी। उनका विश्वास था कि परम ज्योति स्वरुप उस जगत के करतार के नियंत्रण में ही समस्त सृष्टि वर्तमान है, गतिमान है। वे महान संत थे। सहजता, सहृदयता, सारग्रहिता, अनयवगम्यीरता, लोक और काव्य का गहन अध्ययन, आडम्बर- हीनता, संयम और पवित्र भक्ति उनके चरित्र के विशेष आकर्षण हैं। इनके हृदय की नम्रता अपार थी। वे अपने विषय में गर्वोक्ति नहीं लिखते। वे स्पष्ट कहते हैं :-

हौं सब कविन केर पछिलगा।
किछु कहि चला तबल देई डगा।

उनका कहना है कि मैं सभी कवियों के पीछे चलने वाला हूँ। नन्कारे की ध्वनि हो जाने पर मैं भी आगे वालों के साथ पैर बढ़ाकर कुछ कहने को चल पड़ा हूँ। इस बात को सभी विद्वानों ने साफ कर दिया है कि उनके समस्त काव्य में एक उक्ति भी निज के विषय में गर्व की नहीं है।

जायसी इस्लाम धर्म और पैगम्बर पर पूरी आस्था रखते थे। उन्होंने ईश्वर तक पहुँचने के लिए अनेक मार्गों को स्वतः स्वीकार किया है। इस असंख्य मार्गों में वह मुहम्मद साहब के मार्ग को सरल एवं सुगम कहते थे।

विधिना के मारग हे ते ते।
सरग नखत, तन रोवां जेते।।
तिन्ह मह पंथ कहों भल भाई।
जेहि दूनों जग छाज बढ़ाई।। 
सं बड़ पन्थ मुहम्मद केरा।
है निरमल कविलास बसेरा।।

जायसी बड़े भावुक भगवद्भक्त थे और अपने समय में बड़े ही सिद्ध और पहूँचे हुए फकीर माने जाते थे। वे विधि पर आस्था रखनेवाले थे। सच्चे भक्त का प्रधान गुण देन्य उनमें पूरा- पूरा था। उनकी वह उदारता थी, जिससे कट्टरपन को भी चोट नहीं पहुँच सकती थी। प्रत्येक प्रकार का महत्व स्वीकार करने की उनमें क्षमता थी। वीरता, धीरता, ऐश्वर्य, रुप, गुण, शील सबके उत्कर्ष पर मुग्ध होनेवाला हृदय उन्हें प्राप्त था। वे जो कुछ जानते थे, उसे नम्रतापूर्वक पण्डितों का प्रसाद मानते थे।

 

जायसी के पुत्र :-

यह माना जाता है कि जायसी को सात पुत्र थे। ये सातों पुत्र एक साथ मकान के नीचे दबकर या इस जैसी किसी घटना में मर गए। इस घटना ने जायसी को संसार से और भी विरक्त कर दिया और वह कुछ दिनों में घर बार छोड़कर इधर- उधर फकीर होकर घुमने लगे।

 

जायसी का विराग :-

जायसी के विराग का कारण भी कुछ इस प्रकार की घटना ही होगी, जिसने उसे प्रेमानुभव के एक नवीन लोक में पहुँचा दिया, उनके हृदय में विराग का एक स्रोत फूट पड़ा। उनका हृदय 
किसी अपूर्व ज्योति से उद्भासित हो उठा। उसी का रुप नयनों में समा गया। सर्वत्त उसी सौंदर्य और प्रेम सत्ता के दर्शन होने लगे। संसार के मापदंड बदल गए। विषयों से मन हट गया। हृदय में एक ही आकुलता छा गई कि किस प्रकार उसे परम ज्योति या रुप की साक्षात प्राप्ति हो। जायसी ने अपनी उस वैराग्य- अवस्था का सच्चा वर्णन किया है :-

ं*

तहां दवस दस पहुनें आए
भा बेराग बहुत सुख पाएउ।।
सुख भा सोच एक दुख मानो।
ओहि बिनु जिबन मरन के जानों।।

नैन रुप सो गएऊ समाई।
रहा पूरि भरि हिरदे छाई।।
जहवैं देखौं तंहवैं सोई।
आर न आव दिस्ट तर कोई।।

आपुन देखि देखि मन राखौं।
दूसर नाहिं सो कासों भाखों।।
सबै जगत दरपन कर लेखा।
आपनु दर्सन आपुहि देखा।।

उपर्युक्त से यह आशय स्पष्ट होता है कि वैराग्य की तीव्रधारा के स्पर्श से एक बार ही उनका आनंद प्लावित हो गया। प्रियतम का, जो रुप नयनों में समा गया था, वहीं भीतर और बाहर का आनंद था और यही मिलन की वेदना का कारण बना। सचमुच वैराग्य के अनंतर जायसी को महान आत्मिक सुख मिला होगा। उन्होंने परमात्म- तत्व के दर्शन अवश्य किए थे। उसे उन्होंने विश्व के कण- कण में देखा और अनुभव किया था।

 

जायसी के मित्र :-

जासयी के चार मित्र थे। उन्होंने अपने चारों मित्र का उल्लेख बड़े ही उल्लासित कंठ से किया है। पद्मावत के आरंभ में ही जायसी ने इन चारों की प्रशस्ति की है :-

चारि मीत कवि मुहमद पाए।
जोरि मिताई सरि पहुचाए।।
युसूफ मलिक पण्डित और ज्ञानी।
पहिलैं भेद बात उन्हें जानी।।

पुनि सालार कांदर मतिमांह।
खांडे दान उभे निति वाहां।।
मियां सलोने सिंध अपारु।
बीर खेत रन खरग जुझारु।।

सेख बड़े बड़ सिद्ध बखाने।
कई अदेस सिद्धन बड़ माने।।
चारिऊ चतुर दसौ गुन पढ़े।
औं संग जौग गोसाई गढ़े।।

विरिख जो आछहिं चंदन पासां।
चंदन सोहि बंघि तेहि बांसा।।
मुहमद चारिउ मीत मिलि, भए जो एकइ चित्त।
एहि जग साथ निबाहा, ओहि जग बिछुस कित्त।।

जायसी के चार मित्रों में से दो यूसुफ मलिक पट्टी कंचाना के रहने वाले थे। सालार खादिम सालार पट्टी के रहने वाले थे। सालार खादिम शहंशा के वक्त तक जीवित रहे। ये अत्यंत बुद्धिमान, तलवार के धनी, जमींदार और दानी भी थे। ये सभी मित्र बड़े ही सिद्ध पुरुष थे।

 

| कवि एवं लेखक |

Content Prepared by Mehmood Ul Rehman

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