मलिक मुहम्मद जायसी

मलिक मुहम्मद जायसी का व्यक्तित्व

जैसा कि नाम से मालूम पड़ता है कि मलिक जायसी के रहने वाले थे। जायसी में रहते- रहते वह कुछ दिनों के लिए इधर- उधर भी गए। कुछ दिनों के बाद वह जायस दोबारा वापस आए थे। इस बात का संकेत उन्होंने स्वयं किया है :-

जायस नगर धरम अस्थानू।
तहां आई कवि किंह बखानू।।

जायस के लोगों के अनुसार वह जायस के ही रहने वाले थे। वहाँ के लोग इनका घर का स्थान अब भी दिखाते हैं। अपनी प्रसिद्ध ग्रंथ पद्मावत में जायसी ने अपने चार मित्रों का जिक्र किया है, वह हैं - युसूफ मलिक, सालार खादिम, सलोनों मियां और बड़े शेख। ये चारों जायस के ही रहने वाले थे। सलोनों मियां के संबंध में आज तक जायस में यह जनश्रुति चली आ रही है कि वे बहुत बलवान थे।

मलिक कुरुप और काने थे, कुछ लोगों के अनुसार वह जन्म से ही काने थे। इस संबंध में अधिकतर लोगों का कहना है कि शीतलता या अर्द्वेेग रोग से उनका शरीर विकृत हो गया था। जनश्रुति है कि बालक मुहम्मद पर शीतल का भयंकर प्रकोप हुआ, जिससे माता- पिता को निराशा 
हुई। माँ ने पाक- साफ दिल से शाहमदार की मनौती की। पीर की दुआ बालक बच गया, किंतु बीमारी के कारण उनकी एक आँख चली गयी। उसी ओर का बायां कान भी नाकाम हो गया। अपने काने होने का उल्लेख उन्होंने स्वयं ही किया है :-

एक नयन कवि मुहम्मद गुमी।
सोइ बिमोहो जेइ कवि सुनी।।
चांद जइस जग विधि ओतारा।
दीन्ह कलंक कीन्ह उजियारा।।

जग सुझा एकह नैनाहां।
उवा सूक अस नखतन्ह मांहां।।
जो लहिं अंबहिं डाभ न होई।
तो लाहि सुगंध बसाई न सोई।।

कीन्ह समुद्र पानि जों खारा।
तो अति भएउ असुझ अपारा।।
जो सुमेरु तिरसूल बिना सा।
भा कंचनगिरि लाग अकासा।।

जौं लहि घरी कलंक न परा।
कांच होई नहिं कंचन करा।।
एक नैन जस दापन, और तेहि निरमल भाऊ।
सब रुपवंत पांव जहि, मुख जोबहिं कै चाउ।।

मुहम्मद कवि जो प्रेम या, ना तन रकत न मांस।
जेइं मुख देखा तइं हंसा, सुना तो आये आंहु।।

उपर्युक्त पंक्तियों से अनुमान होता है कि बाएं कान से भी उन्हें कम सुनाई पड़ता था। एक बार जायसी शेरशाह के दरबार में गए, तो बादशाह ने इसका मुँह देखकर हँस दिया। जायसी ने शांत भाव से पूछा -

मोहि कां इससि कि कोहरहि ?

अर्थात तू मुझ पर हंसा या उस कुम्हार पर, 

इस पर शेरशाह ने लज्जित होकर क्षमा माँगी। 

 

| कवि एवं लेखक |

Content Prepared by Mehmood Ul Rehman

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