हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 112


IV/ A-2109

काशी

22.9.1954

आदरणीय पंडित जी,
प्रणाम!

आपका पत्र मिला है। मैं दिल्ली आ रहा हूँ। इस बार आपको यहाँ या बहन सत्यवती जी के यहाँ ठहर जाऊँगा। दिल्ली इस बार गया लेकिन आपके साथ जमके नहीं बैठ सका। यात्रा असफल जान पड़ी।

जो लेख मेरे पास सम्मत्यर्थ आपने भेजे हैं, उन्हें देख गया हूँ। ये क्या बच्चों के लिये लिखे गए हैं? इनकी भाषा और विचार सरिता से यही मालूम होता है कि ये १४,१५ वर्ष के अल्पविकसित मस्तिष्क वाले बालकों के लिये लिखा गया है। आपने यह नहीं बताया कि ये कि पाठकों को लक्ष्य करके लिखे गए हैं। खैर।

१. श्रीकृष्ण संबंधी लेख बहुत ही हल्का है। इसमें श्रीकृष्ण के उस रुप का एकदम परिचय नहीं दिया गया जो मध्यकाल में समूचे भारत के कवियों और कलाकारों में प्रिय था। संभवत: बालक पाठकों को ध्यान में रखकर ऐसा किया गया हो। परन्तु श्रीकृष्ण रुप अधूरा ही है जिसमें उनके प्रेमी रुप का उल्लेख ही न हो। "कुरु" "संकट" आदि शब्द तो शायद टाइप की गलतियाँ हैं, पर कई बार आए हैं और उनको सावधानी से सुधार देना चाहिए। गीता का जो सार मर्म अन्त में दिया गया है वह बहुत ही उथला लगा। गीता की मूल फिलासफी का इसमें कोई उल्लेख नहीं है जिसमें अफलाकांक्षी होकर कर्म करने का उपदेश है और उनके भक्ति, वैराग्य और ज्ञान संबंधी बातों को तो शायद यह समझकर छोड़ दिया गया है कि वे बालकों के योग्य नहीं होते। मुझे यह लेख नहीं रुचा। भारतवर्ष के सर्वाधिक लोकपूजित व्यक्ति की यह जीवनी बहुत उथली है।

२. ""दीवाली"" भी बहुत ऊपरी बातों से भरी है। ऐसा लगता है कि यह किसी विदेशी बालक को लक्ष्य करके लिखा गया है, जिसे दिवाली के बारे में कुछ भी पता नहीं और सिर्फ उसको इतनी जानकारी अवश्य है कि उस दिन कैसे दिया जलाया जाता है और बजार में कैसी धूम होती है। दिवाली का इतिहास काल्पनिक दिया गया है। हमारे देश के हजारों वर्ष पुराने इतिहास में इसका क्या रुप है, विभिन्न प्रदेशों में इसका क्या रुप है, क्यों इस दिन कहीं लक्ष्मी-पूजा होती है और कहीं काली-पूजा, इत्यादि बातों को छुआ भी नहीं गया है।

३. कालिदास वाला लेख इन दोनों से कुछ अच्छा है पर कालिदास के रहस्य का इससे कुछ भी पता नहीं चलता। उनकी उपमाओं की प्रशंसा की गई है पर जो उदाहरण दिया गया है वह उपमा की नहीं है। पराने पंडित उसे निदर्शन कहते आए हैं। फिर भी यह लेख पहले दो लेख से कुछ अच्छा है।
अगर ये लेख विश्वकोष के हैं तो बड़े ही कमजोर हैं। इससे अदिक मुलायम भाषा में इसकी अलोचना नहीं हो सकती। यदि ये बालकों के लिये लिखे गए हैं तो भी बहुत अच्छे नहीं हैं। पता नहीं मेरी सम्मति किसके विरुद्ध जा रही है। पर मैंने अपने मनोभाव आपको साफ़ साफ़ बता दिए हैं।

आशा है प्रसन्न हैं।

मैं २२ को प्रात:काल आ सकता हूँ। शेष कुशल है।

आपका
हजारी प्रसाद

पुनश्चः आप क्या ५-२५ अक्टूबर तक हम लोगों के साथ दक्षिण चल सकतें हैं। सब लोगों का आग्रह है। पर आपका स्वास्थ्य जैसा देख आया उससे आप पर दबाव डालने का साहस नहीं होता। चल सकते तो अच्छा होता।
"आज" ने शिष्टमंडल पर एक सम्पादकीय लिखा है। बहुत अच्छी बातें कहने के बाद उस पत्र की शिकायत है कि इसमें कोई पत्रकार नहीं हैं।
आपके शिष्य होने के कारण मैं पत्रकार होने का दावा कर सकता हूँ या नहीं
खैर आप चलें तो आपकी शिकायत भी दूर हो जाये। चलने से प्रसन्नता ही होगी।

हजारी प्रसादः

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली