हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 104


IV/ A-2099

काशी हिंदू विश्वविद्यालय,
17.2.1953

आदरणीय पंडित जी,
प्रणाम!

आपके पत्र से बहुत उत्फुल्ल हुआ हूँ। आपने आरंभ बिल्कुल उचित ढ़ग से किया है। मैं ""दिल्ली में हिंदी भवन"" नाम का एक लेख हिंदुस्तान के लिये लिख रहा हूँ।

सचमुच ही मेरी इच्छा होती है कि जब तक आप दिल्ली में हैं तब तक मैं भी वहाँ रहूँ। आपके मन का कुछ कर सकता तो कितना अच्छा होता।

ऐसा लगता है कि आपके यहाँ जो मैं जो नहीं ठहरा उससे आपको कुछ क्लेश हुआ है। मैं ठहरना आप ही के यहाँ चाहता था पर मेरे साथ कुछ और लोग थे और सबको लेकर आपके घर जाना ठीक नहीं जान पड़ा। पर निश्चित मानिए कि मैं मन से सदा आपके ही यहाँ बना रहा। आपको आर्थिक परेशानी में देखता हूँ तो बड़ा कष्ट होता है। मैं जानता हूँ कि आपको कोई चिन्ता नहीं होती पर फिर भी परेशानी तो है ही। अब इस वृद्धावस्था (!) में आप से यह आशा तो की नहीं जा सकती कि जन्म भर की फक्कड़ाना मस्ती को तलाक दे दें (तलाक शब्द का व्यवहार केवल मुहावरे के कारण हो गया, कहीं कौंसिल में मेरे इस वाक्य को लेकर आप यह घोषणा कर दें कि काशी के पंडित तलाक देने की आशा किसी किसी से रखते हैं!

एक गुरुदेव की कवीता है। बहुत पहले आपको सुनाई थी और आपने पसंद की थी। उसका एक हिंदी अनुवाद "दम तोड़ छंद" में किया है। भेज रहा हूँ। अच्छा लगे तो हिंदुस्तान (साप्ताहिक) वालों को दे दें। या अपने ही पास रखें। जैसा भी चाहें। कविता आपको समर्पित है।

शेष कुशल है।


आपका
हजारी प्रसाद द्विवेदी

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली