हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 43


IV/ A-2042

विले पार्ले

बम्बई

19.10.40

आदरणीय पंडित जी,

प्रणाम!

       हम लोग यहाँ १७ अक्टूबर को पहुँच गये। यहाँ आकर हमें बड़ी प्रसन्नता हुई है। नाना दर्शनीय स्थानों को देखने का एक साथ मौक़ा मिला है। समुद्र तो मैंने पहली बार देखा है और वह भी एक ऐसे तूफान के बाद जिसका वेग ७५ मील प्रति घंटे था। रास्ते में जंगल पहाड़, नदी-नाले देखते हुए हम लोग नवीन जीवन अनुभव कर रहे हैं। मेरा दृढ़ विश्वास हो गया है कि मैदान के रहने वालों को नई स्फूर्ति पाने के लिये इन पहाड़ों, जंगलों और नदी-नालों को तथा समुद्र को ज़रुर देखना चाहिये। बिना इनके देखे हम जीवनीशक्ति की अखंड धारा का अनुभव नहीं कर सकते। कितना विराट है हमारा देश, कितना मनोरम, कितना विचित्र। इसके लिये प्राण देना कोई बड़ी कीमत नहीं है। इसे खोकर हम सचमुच हीन हो गये हैं। मैं बराबर अनुभव करता रहा हूँ कि यह जो आनंद और स्फूर्ति अनुभव कर रहा हूँ, उसके कारण आप हैं। अब तो मैंने निश्चय कर लिया है कि हिमालय देखने ज़रुर जाऊँगा। बिना प्रकृति के इस सौंदर्य और तेज को देखे जीवन एकांगी और एक धृष्ट हो जाता है। मैदान के रहने वालों की रीति-मनोवृत्ति अगर दूर करना है तो उनको सीधे इस जीवन के जंगल में ले आइये, जहाँ कठोर पत्थर को तोड़ कर कोमल तृण उगे हुए हैं।

       श्री क्षिति मोहन बाबू आपको नमस्कार कहते हैं।

       मैं यहाँ से २२ को चला जाना चहाता हूँ।

       और सब कुशल है।

आपका

हजारी प्रसाद द्विवेदी

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली