हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 17


IV/ A-2017

शान्तिनिकेतन

21.12.36

श्रद्धास्पदेषु,

       प्रणाम! प्रेमचन्द दिवस बड़े उत्साह से मनाया गया। क्षिति मोहन बाबू अध्यक्ष थे। उनका भाषण वि.भा. के लिये भेजूँगा। बड़ा अच्छा था। भारतीय कथा साहित्य में युग-गुरु उनका भाषण वि.भा. के लिये भेजूँगा। बड़ा अच्छा है। भारतीय कथा साहित्य में युग-गुरु दीजियेगा। मल्लिक जी ने कहा है। वैसे कहानी मल्लिक जी के मत से बहुत अच्छी नहीं है। वे कहते हैं कि बाहर की दुनिया में पहले पहल सेकेण्ड रेट की चीज़ न जाय। चंद्रगुप्त जी की कोई दुसरी फस्र्ट रेट की कहानी हो तो अच्छा हो। जैसा आप कहें। प्रेमचन्द जी की अँग्रेजी अनुवाद कुछ-कुछ हो रहा है। पहली कहानी का पहला अनुवाद the village well (ठाकुर का कुआँ) कल पढ़ा गया था। खूब समादृत हुआ।

       मैंने सुना है कि आप दुबले होते जा रहे हैं। सदा चिन्ताग्रस्त रहते हैं। विनोद जी ने ऐसा लिखा है। मैं आपकी इस हालत को सुन कर क्या कर्रूँ, कुछ समझ में नहीं आता। बश की कोई बात है नहीं। अपने नाना विध दु:ख की अवस्थाओं में गुरुदेव के इस भजन से बड़ा उत्साह पाता हूँ। शायद आपको भी इससे रोशनी मिल सके, इसी आशा से आज इस भजन को भेज रहा हूँ। सबेरे उठ कर एक बार पढ़ने से जरुर साहस और बल मिलेगा। मेरा अनुभव है। पहले अनुवाद और बाद में कविता दे रहा हूँ।

       विपत्ति में मेरी रक्षा करो, यह प्रार्थना मेरी नहीं है, ऐसी शक्ति दो कि मैं विपद से न डर्रूँ। अगर तुमने दु:ख ताप से व्यथित चित में सान्त्वना न दी तो कोई बात नहीं, लेकिन ऐसा करो कि मैं दु:ख को जीत सकूँ। यदि मेरा कोई सहाय न मिले, तो इतना ही हो कि मेरा अपना बल न टूटने पाये। अगर मेरे संसार का कुछ नुकसान हो जाय, मैं केवल वंचना ही पाऊँ तो भी ऐसा हो कि मैं अपने मन में क्षीणता न मानूँ-

विपदे मोरे रक्षा कर,

ए नहे मोर प्रार्थना,   

विपदे आमिना येन करि भय।

दु:ख तापे व्यथित चिते

नाइ वा दिले सान्त्वना

दु:खे येन करिते पारिजय।

सहाय मोर ना यदि जुटे,

निजेर बल ना येन टुटे,

संसारे ते घटिले क्षति

लभिले शुधु वंचना

निजेर मने ना येन मानि क्षय।

तुम मिझे बचाओ यह मेरी प्रार्थना नहीं है। केवल इतनी शक्ति हो कि मैं तैर सकूँ। कोई बात नहीं। अगर तुमने मेरा भार हल्का करके सान्त्वना न दी। केवल ऐसा ही हो कि मैं (इस भार को) ढो सकूँ। सुख के दिनों में सिर झुका कर तुम्हारा मुँह पहचान लूँगा, लेकिन दु:ख की रात में जिस दिन सारी पृथ्वी मुझे वंचना कर रही हो, उस दिन, ऐसा हो कि, तुम्हारे ऊपर संदेह न कर्रूँ-

आमरे तुमि करिवे त्राण

ए नहे मोर प्रार्थना,

तरिते पारि शकति येन रय।

आमार भार लाघब करि,

नाइवा दिले सान्त्वना,

बहिते पारि एमनि येन हय।

नम्र शिरे सुखेर दिने

तोमारि मुख लइब चिने

दुखेर राते निखिल धरा

ये दिन करे वंचना

तोमारे येन ना करि संशय।

मैंने यह नुस्ख़ा वैद्य की भाषा में लिखा है। यद्यपि मैं वैद्य होने का दावा नहीं करता पर निश्चयपूर्वक आप इससे फायदा पायेंगे, ऐसा कह सकता हूँ। क्योंकि इस विषय में मेरा थोड़ा-सा अनुभव है।

       शेष कुशल है।

आपका

हजारी प्रसाद


1 . श्री  

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली