छत्तीसगढ़

Chhattisgarh


राजनांदगांव

राजनांदगांव के जो पुराने राजमहल है, उसे किला कहते हैं। उस किले के प्रधान द्वार पर मोटे मोटे ठेंगे रखे हुए हैं। ठेंगे को जीतराय के ठेंगे कहते हैं।

जीतराय थे गोंड़ राजा। राजा जीतराय के बारे में कोई इतिहास उपलब्ध नहीं है। इतिहास मौखिक रुप से लोग जानते थे और लिखित न होने के कारण उनके बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है। ये बहुत अफसोस की बात है कि अभी तक किसी ने इसके बारे में शोध नहीं किया।

किले के भीतर के दरगाह है। यह दरगाह अटलशाहबली की दरगाह के नाम से जानी जाती है। अनुमान किया जाता है ये सूफी सम्प्रदाय के थे। शायद गोंड़ राज-परिवार के कोई व्यक्ति सूफी सम्प्रदाय के हो गये थे।

प्यारेलाल गुप्त लिखते हैं - "संभव है कि सूफी सम्प्रदाय में, कोई गोंड़ राजघराने के व्यक्ति ही दीक्षित होकर अटलशाह बन गये हों, क्योंकि अटल तो भारती नाम है और शाह की उपाधि गोंड़ राजवंश धारण करते रहे हैं"।

प्राचीन छत्तीसगढ़ - प्यारेलाल गुप्त प्रकाशक रवि शंकर विश्वविद्यालय - रायपुर

पत्ता परगना में एक गुफा है जिसमें पत्थर की एक बड़ी लंबी तलवार है जो गोंड राजा की है।

पांडादह में राजाओं की समाधियों पर शंख, चक्र, सूर्य, चाँद के चिन्ह हैं। ये चिन्ह बैरागियों के हैं।

खैरागढ़

खैरागढ़ में, पुरातत्व की दृष्टि से, दो प्राचीन मंदिर हैं। एक मंदिर खैरागढ़ में है और दूसरा है डोंगरगढ़ में।

खैरागढ़ में जो मन्दिर है वह संत रुवसड़ स्वामी के हैं। राजा टिकैतराय जो खैरागड़ में राज कर रहे थे, उन्होंने ही इस मन्दिर का निर्माण करवाये थे। वे संत रुवसड़ स्वामी को गुरु मानते थे। ऐसा कहा जाता है कि संत रुवसड़ स्वामी के आशीर्वाद के कारण ही राजा टिकैतराय को दो पुत्र हुए थे। इसके अलावा राज्य को शत्रुओं से रक्षा कर पाए थे।

डोंगरगढ़ में बमलाई देवी का मंदिर है। यह मन्दिर एक पहाड़ के ऊपर स्थित है। डोंगरगढ़ के राजा कामसेन इस मन्दिर का निर्माण किए थे। कहते है कि राजा कामसेन उस समय यह मन्दिर का निर्माण करवाए थे जब उज्जैन में राजा विक्रमादित्य राज्य करते थे। राजा कामसेन एक उपपत्नी का नाम था कामकंदला। कामकंदला अपनी सुन्दरता के लिए विख्यात थी। बहुत सुन्दर गाती भी थी। एक तालाब उसने ही खुदवाया था। वह तालाब मन्दिर के पास है।

बमलाई पहाड़ी के ऊपर एक बहुत बड़ा शिलाखंड है। उस शिलाखंड को लोग मोटियारी कहते हैं। मोटियारी का अर्थ छत्तीसगढ़ी में है युवा स्री। उस शिलाखंड को लोग क्यों मोटियारी कहते हैं, उसके बारे में एक कहानी कही जाती है - एक बार 147 नृर्तकियाँ राजनांदगाँव आई थी। ये नृर्तकियाँ नांदगाँव राज्य से आई थी । जब वे राजनान्दगांव पहुँची तो राजमाता बहुत ही चिन्तित हो गई। इतनी सुन्दर नृर्तकियाँ आ पहुँची हैं - क्या होगा अगर मेरा पुत्र किसी सुन्दर नृर्तकी पर मोहित हो जाये। ये सोच राजमाता को सताने लगी। वह नहीं चाहती थी कि कोई नृर्तकि राजमहल की बहू बनकर आये। उन्होंने हल्दी का एक घोल तैयार करवाया। उस पर जादू किया गया। इसके बाद राजमाता अपने पुत्र को बुलाकर कहा कि जिस नृर्तकी का वह नृत्य सबसे पहले देखे उसी नृर्तकी पर वह हल्दी का घोल छिड़क दे। राजा ने वैसी ही किया। जैसे ही उन्होंने हल्दी का घोल एक नृर्तकी पर छिड़काया, वह नृर्तकी उसी वक्त शिलाखंड में बदल गई। बमलाई पहाड़ी पर जो शिलाखंड है, वह वही नृर्तकी है और इसीलिये उस शिलाखंड को मोटियारी कहते हैं।

इस तरह की कहानियाँ प्रचलित हैं पूरे छत्तीसगढ़ में और पुरातत्व के साथ फैन्टासी घुलमिल जाते हैं।

रायपुर संग्राहलय में एक 10 फुट ऊँचा शिलास्तम्भ है जिस पर फारसी भाषा में लेख है। यह शिलास्तम्भ डोगंरगढ़ में पाया गया था। डोंगरगढ़ के मोतीबीर तालाब पर यह शिलास्तम्भ पाया गया था।

कंवर्धा

कंवर्धा में पुरातत्व संबंधी काफी सारे अवशेष मिले हैं। सबसे पहले तो भोरमदेव का मंदिर। और उससे थोड़ी दूरी पर स्थित मड़वा महल। ये छपरी गाँव में अवस्थित है। भोमरदेव के मन्दिर कंवधा से लगभग १६ किलोमीटर दूर है। इस मन्दिर में बहुत सारे उत्कीर्ण लेख हैं। इस मन्दिर में जो लक्ष्मीनारायण की मूर्तियाँ हैं, उनके आधारशिला पर मक्रध्वज जोगी का नाम उत्कीर्ण है। और कई जगह में उस जोगी का नाम है जैसे कंकाली के एक प्राचीन मंदिर में जो वोरिया गाँव के पास है।

इन लेखों से ये पता चला है कि कंवर्धा में नागवंशी राजा राज करते थे। शिलालेख में कलचुरि

(हैहयवंशी) संवतों दिये हुए हैं। इसी से ये प्रभाव होता है कि नागवंशी राजा कलचुरि राजा का प्रभुत्व मानते थे।

मंदिर के पास एक विशाल शिलालेख पड़ा हुआ है। उस शिलालेख में कंवर्धा के नागवंश का विवरण दिया हुआ है। इस शिलालेख का उत्कीर्ण का समय है सन् 1349 उस समय नागवंश के राजा रामचन्द्र राज करते थे। उस शिलालेख में राजा रामचन्द्र द्वारा एक शिवमन्दिर के निर्माण कराने का उल्लेख है। इसी राजा रामचन्द्र के साथ हैहयवंश की राजकुमारी अंबिकादेवी की शादी हुई थी। उनके दो पुत्र हुए थे जिनका नाम था अर्जुन और हरपाल।

नागवंशी की उत्पत्ति के बारे में काफी जानकारी मड़वा महल के शिलालेख में मिलती है। नागवंशियों का पहला राजा था राजा अहिराज। उनके बाद क्रमश: राजल्ल, धरणीधर, महिमदेव, सर्ववदन, गोपालदेव, नलदेव, भुवनपाल, कीर्तिपाल। कीर्तिपाल का कोई बेटा नहीं था इसीलिए उनका भाई जयत्रपाल उनके बाद राजा हुआ। उसके बाद क्रमश: महीपाल, विषमपाल, जन्दु, जनपाल, यशोराज, कन्हड़देव, लक्ष्मीवर्मा ने राज्य किया। लक्ष्मीवर्मा के दो पुत्र थे, बड़ा बेटा खड़गदेव राजा बना। उसी वंश में क्रमश: भुवनै-कमल्ल, अर्जुन, भीम, भोज। भोज के बाद लक्ष्मीवर्मा के छोटे बेटे चंदन का प्रपौत्र लक्ष्मण राजा हुआ। उनका बेटा था रामचन्द्र, जो सन् 1349 में राज्य करता था।

भोमरदेव मंदिर बहुत ही उच्च कोटी का मन्दिर है। मंदिर की अलग-अलग मूर्तियां बहुत ही उच्च स्तर की है। सरस्वती, राधा, काली, बुद्ध की मूर्तियाँ देखने से पता चलता है कि उस वक्त के कलाकार कितना उत्कृष्ट काम किया करते थे। मन्दिर के सामने जो प्रमुख द्वार है, उसके सामने नन्दी और शिवलिंग की संगमरमर से बनी हुई प्रतिमाएँ मन को मोहित करती है।

सक्ती

सक्ती में गुंजी नाम का गाँव है, जहाँ एक शिलालेख प्राप्त हुआ है। यह लेख पाली भाषा में खुदा हुआ है। इस लेख में चार पंक्तियाँ हैं जिनका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है -

"सिद्धम, भगवान को नमस्कार। राजा कुमारवरदत्त के पाँचवे संवत में हेमंत के चौथे पक्ष के पंद्रहवें दिन भगवना के ॠषभ तीर्थ में, पृथ्वी पर धर्म (के समान) अमात्य गोडछ के नाती, अमात्य मातृजन पालित और वासिष्ठी के पुत्र अमात्य दण्डनायक और बलाधिकृत बोधदत्त ने हजार वर्ष तक आयु बढ़ाने के लिए ब्राह्मणों को एक हजार गायें दान में दी। छठे संवत में ग्रीष्म छठे पक्ष के दसवें दिन दुबारा एक हजार गायें दान दी। यह देखकर दिनिक के नाती - अमात्य (और) दण्डनायक इन्द्रदेव ने ब्राह्मणों को एक हजार गायें दान में दी।"

प्यारेलाल गुप्त "प्राचीन छत्तीसगढ़" 1974 , रविशंकर विश्वविद्यालय,

रायपुर प्यारेलाल गुप्त जी का अनुमान है कि यह शिलालेक संभवत: सन् ईस्वी की प्रथम शताब्दी का है। "इस लेख से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दक्षिण के इच अंचल में कृषि और गौरक्षा की अच्छी व्यवस्था थी और इस दृष्टि से यह बड़ा समृद्धिशाली था।

रायगढ़

रायगढ़ का राजवंश का सम्बन्ध चाँदा के प्राचीन गोंड़ राजवंश से था।

पुरातत्व की दृष्टि से रायगढ़ में काफी सारे अवशेष पाये जाते हैं।

भूपदेवपुर के पास सिंहनपुर में जो शैल चित्र पाये गये हैं, ऐसा कहा जाता है कि वे प्रागैतिहासिक काल के है। एक पहाड़ी है जिसका नाम है "काबरा"। उस पहाड़ी पर भी इसी तरह के शिलाचित्र पाये गये हैं। ठीक इसी तरह के चित्र और कई जगहों में पाये गये हैं जैसे खैरपुर, कर्मागढ़।

पंचाधार नाम का गाँव में कई मन्दिरों का अवशेष है, जो कि 11 वीं शताब्दी के हैं।

टेरम नाम के गांव में पुराने किले के खंडहर हैं और एक शिलाखंड है जो 12 वीं शताब्दी का है।

मीलुपारा में किले के अवशेष हैं - जिसके द्वार पर बड़े नगाड़े पड़े हुए हैं।

मैनापारा, बरगढ़ में भी प्राचीन किलों के अवशेष है।

आंगना के पहाड़ी गुफाओं में लेख पाये गये हैं।

नारायणपुर में डोम राजा के महल और मन्दिर के अवशेष पाये गये हैं।

बसनाझार गांव के पहाड़ी चट्टानों पर चित्रांकन है।

बालपुर में सन् 1924-25 में बहुत से लोहे और पत्थर की पुरानी सामग्री और मुद्राएँ मिली थी।

सारंगढ़

सारंगढ़ में समलेश्वरी देवी के मन्दिर है। इस मन्दिर का निर्माण सन् 1692 ईं. में किया गया था। सारंगढ़ के पास पुजारीपाली में कुछ प्राचीन मन्दिर हैं। एक मन्दिर को "महाप्रभु" का मन्दिर कहते हैं। एक मन्दिर है वहाँ जिसे लोग "रानी झूला"कहते हैं। ये मन्दिर बहुत ही भग्नावस्था में है। महाप्रभु के मन्दिर के पास ही एक शिलालेख मिला था जो अब रायपुर संग्रहालय में है। इस शिलालेख में गोपाल वीर नाम के एक सामन्त के बारे में विवरण है। यह शिलालेख 11 वीं शताब्दी (ईस्वी) का है। इसमें लिखा है कि गोपाल वीर ने बहुत से गांवों का निर्माण करवाया था। ऐसा मानते हैं कि शादय उन्होंने मंदिर एवं धर्मशालाओं का निर्माण करवाया था।

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Content Prepared by Ms. Indira Mukherjee 

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