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रोहिणी बाई परगनिहा

रोहिणी बाई परगनिहा जब पहली बार जेल गईं, तब वे 12 वर्ष की थीं। सन् था 1932 । रोहणी 10 साल की उम्र से ही रायपुर नगर मेंे डॉ. राधा बाई की टोली में शामिल हो गई थीं। रोहिणी सत्याग्रहियों में सबसे छोटी थी, इसीलिए उन्हें सभी सत्याग्रहियों से ढ़ेर सारा प्यार मिला था। राधा बाई की टोली के साथ जब वह चलतीं, झंड़ा लेकर तो वह सबसे आगे रहतीं। राधा बाई के साथ सत्याग्रही गा उठते - "जान चाहे भले ही गँवाना पर न झंड़ा ये नीचे झुकाना"। पूरी टोली अब पुलिस चौकी के सामने से यह गीत गाते हुए झंड़ा हाथ में लिए आगे बढ़ जाती। दुकानों में जाकर वे विदेशी वस्तु न बेचने और न खरीदने के लिए दुकानदारों को समझाने लगती। ब्रिटिश सरकार के लोग पहले झंड़ा छीनने लगे। बारह साल की रोहिणी झंड़े को कसकर पकड़े रही। चार जवान उन्हें पकड़कर घसीटते हुए ले गए। उनको पीटने लगे ड़ंड़े से। रोहिणी बाई के शरीर पर ड़ंड़े पड़ने और घसीटने से छिलने के ये निशाने उनकी ज़िन्दगी के आखरी समय तक रहे।

रोहिणी के पिता शिवलाल प्रसाद तर्रा गाँव के बड़े मालगुज़ार थे। रोहिणी की माँ थी श्रीमती देहुती बाई। उफरा गाँव के मालगुजार बालकृष्ण परगनिहा की बहू बनकर रोहिणी उफरा गाँव में बारह वर्ष की उम्र में गई। शादी के पीले वस्र अभी पहने ही थी कि पति माधव प्रसाद परगनिहा ने जेल जाने की तैयारी करने के लिए कहा। माधव प्रसाद राष्ट्रीय विद्यालय में शिक्षक थे। उस वक्त उस विद्यालय के प्रिंसिपल थे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नन्दकुमार दानी। शादी के तुरन्त बाद रोहिणी पर विदेशी वस्तुओं की दुकान पर पिकेटिंग करने के आरोप में मुकदमा चला। चार माह की सजा हुई। दो सौ रुपए का जुर्माना साथ में। जेल में पहुँचते ही नाम लिखा गया। महिलाओं की बैठक में जाकर रोहिणी अपने साथियों को देख खुश हो गई। बाकी महिलाओं की तरह रोहिणी को भी पहना दी गई घुटने से ऊपर तक की धोती। एक कम्बल ओढ़ने और एक कम्बल बिछाने के लिए दिया गया। लोहे का तसला पानी पीने और खाने के लिए। चबूतरा, जिसे रोहिणी कहती थी शमशान घाट का चबूतरा, कैदियों के सोने के लिए था। जब खाना खाने का समय आया, तब रोहिणी देखती है चावल में कीड़े-मकोड़े और पत्थर-कंकड़। किसी तरह चुन-चुन के दो चार दाने मुँह में रखती है, तो देखती है, 20 किलो गेहूँ उसे पीसने के लिए दिया गया है। खड़े होकर पीसना पड़ता था। छोटी-सी रोहिणी को किसी चीज़ के ऊपर चढ़कर पीसना पड़ता था क्योंकि वह वहाँ तक पहुँच नहीं पाती थी। साथ में एक बोरा चावल चुनना पड़ता था। कुएँ से पानी खींचना पड़ता था। छोटी-सी रोहिणी के हाथों में छाले पड़ जाते थे। कभी अगर गेहूँ पीसते-पीसते रुक जाती तो मार पड़ती थी। इतना कष्ट इसीलिए दिया जाता ताकि स्वतंत्रता सेनानी माफ़ी माँग लें। किसी ने माफ़ी नहीं माँगी। ऐसी थी हमारी महिलाएँ।

रोहिणी बाई काँग्रेस के हर अधिवेशन में सेवा दल की सैनिक बन कर जाती थीं। उनका पद सेना नायक का होता। उस वक्त रोहिणी बाई पहनती थीं केसरिया साड़ी, सफेद ब्लाऊज, सफेद जूता-मोजा, गले में उनके नीला रुमाल होता। सभी महिलाएँ लाठी लेकर व्यायाम करती थीं। सन् 1933 में गाँधीजी रायपुर आए थे। उस वक्त रोहिणी बाई और दूसरी महिलाओं ने घर-घर जाकर रुपये इकट्ठे कर गाँधीजी को दिया था। कुल मिलाकर ग्यारह हज़ार इकट्ठे किए गये महिलाओं द्वारा, और उस थैली को रोहिणी बाई ने अपने हाथों से गाँधीजी को अर्पित किया था। रोहिणी बाई उस समय सात-आठ दिनों तक गाँधीजी के साथ रही थीं और उनके साथ धमतरी, महासमुंद, भाटापारा, बलौदाबाज़ार, कुरुद गई थीं। जब मोती बाग में खादी की प्रदर्शनी लगी तो रोहिणी ने चरखा कताई की थी और प्रथम आने पर उन्हें तीन गट्ठे कपड़े इनाम में मिले थे। वे सभी पदयात्रा पर जाती थीं। रायपुर से शिवरी नारायण तक नब्बे मील की यात्रा, रोज़ लगभग 9 मील चलना होता था।

सन् 1942 के आन्दोलन में रोहिणी बाई जेल गई थीं। डॉ. राधाबाई के नेतृत्व में वे सभी महिलाएँ जेल गई थीं। जैसे गया बाई, मनटोरा बाई, भगवती बाई, ममादाई। ये महिलाएँ सभी वर्गों की थीं। चार महिलाएँ सिहावा क्षेत्र की आदिवासी महिलायें थीं। एक महिला की जेल में मृत्यु हो गई थी। उस समय रायपुर जेल में 24 महिलायेंें थीं। एक-दूसरे की बीमारियों में वे सेवा करती थी। कुछ महिलाएँ अस्पताल गई थीं, जहाँ से वे वापस नहीं आईं। जेल में बन्दी महिलाएँ एक-दूसरे का सहारा बनकर इन्तज़ार कर रही थीं उस दिन का जब भारतवासी स्वाधीनता संग्राम में विजयी होंगे।

रोहिणी बाई डॉ. राधाबाई के साथ सफाई कामगारों के बच्चों की सेवा करती थीं। उन्हें कहानियाँ सुनाती थीं। जब छत्तीसगढ़ प्रान्त की माँग के लिए गाँधी प्रतिमा के पास धरना दिया गया था, तब रोहिणी बाई भी सभी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के साथ वहाँ थीं। हर साल 15 अगस्त और 26 जनवरी को गाँधी चौक के झंड़ा वंदन में वे जरुर शामिल होती थीं रोहिणी बाई। ज़िन्दगी के अन्तिम समय तक रोहिणी बाई तिरंगे को स्मरण कर प्रसन्न होती थीं - तिरंगा जिसकी खातिर न जाने कितने भारतवासी चुपचाप इस धरती से विदा लेकर चले गए थे।

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Content Prepared by Ms. Indira Mukherjee

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