बुंदेलखंड संस्कृति

बुन्देलखण्ड के लोक-देवता

लोक देवताओं में बुन्देलखण्ड में सर्वाध्कि समावृत और पूज्य हरदौल का स्मरण यहाँ के प्रत्येक परिवार में विवाह के अवसर पर अवश्य किया जाता है, उन्हें आमंत्रित किया जाता है। गांव-गांव में उनके चबूतरे बने हुए हैं। आषाढ़ शुक्ल एकादशी को देवशयनी एकादशी कहा जाता है। यहां उस दिन साभी देवी-देवताओं को पूजने का प्रचलन बहुत प्राचीनकाल से चला आ रहा है। उस दिन हरदौल की भी पूजा की जाती है। हरदौल औरछा नरेश वीरसिंह देव बुन्देला के पुत्र थे। इनके बड़े भाई जुझार सिंह जब ओरछा की गद्दी पर आसीन हुए तो राज्य का सारा काम उनके छोटे भाई हरदौल ही देखा करते थे। वे उस समय के अप्रतिम वीर, सच्चरित्र तथा न्यायपरायण व्यक्ति थे। बुन्देलखण्ड में राजा के छोटे भाई को दीवान कहा जाता है। दीवान हरदौल की इस कीर्ति से जकर किसी चुगलखोर ने राजा जुझार सिंह से शिकायत की कि दीवार हरदौल के रानी से अनुचित सम्बन्ध हैं। राजा को चुगलखोर की यह बात सच प्रतीत हुई। वास्तव में विनाशकाले विपरीत बुद्धि हो ही जाती है। इन्होंने अपनी रानी को आदेश दिया कि वह अपने को निर्दोष प्रमाणित करने के लिए हरदौल को अपने हाथ से विषाक्त भोजन का थाल प्रस्तुत करे। नारी के सतीत्व और गरिमा के कोमल तन्तु कितने क्षीण होते हैं कि सन्देह के श्वास से ही छिन्न-भिन्न होने लगते हैं पर हरदौल तो लक्ष्मण के समान अपनी मातृ स्वरुपा भावज के लिए सदा से ही नित्य पादाभिवन्दन के समय नूपुरों से ऊपर कभी उकनी दृष्टि गई ही नहीं, उठी ही नहीं। अतः उन्होंने अपनी भावज को निर्दोष प्रमाणित करने के लिए हलाहल का पान कर प्राणोत्सर्ग किया। वे मानव की कोटि से ऊपर उठकर देवकोटि में प्रतिष्ठित हुए। उनके साथ उनके अनुचर मेहतर ने भी प्रतिदिन की भांति उस दिन भी उनके जूठे प्रसाद को पाकर अमरत्व और देवत्व प्राप्त किया। जहाँ जहाँ हरदौल के चबूतरे बने हैं, उसके समीप ही मेहतर बाबा का छोटा चबूतरा भी पूज्य बन गया है। इस प्रकार बुन्देलखण्ड में ही समता का वह चरम उत्कर्ष देखने को मलता है कि जहां श्वपच भी वन्दनीय हैं, देवत्य को प्राप्त हैं। यहां कहा जाता है कि हरदौल ने अपनी बहिन कुंजाबाई की पुत्री के विवाह के समय अदृष्ट रहकर भात दिया था। विवाह के समय मामा की ओर से जो सामग्री अन्न-वस्र आदि दिये जाते हैं। उन्हें यहाँ लोकभाषा में "भात' देना कहते हैं। यह किंवदन्ती कहाँ तक सच है, यह तो नहीं कहा जा सकता, पर आज से चालीस वर्ष पूर्व जब सेंवढ़ा से लेकर दतिया तक महामारी का प्रचण्ड प्रकोप हुआ था जिसमें प्रतिदिन र्तृकड़ों व्यक्ति मर रहे थें, परिवार के परिवार उजड़ गये थे, लाशों को ठिकाने लगाने के लिए लोग नहीं मिलते थे, उस समय सेंवढ़ा के अनेक परिवार उस विनाश लीला से बचने के लिए सेंवढ़ा से जाकर महल-बाग के पास बने हरदौल के चबूतरे के आस-पास खुले आसमान के नीचे बिताने को विवश हो गये थे। विज्ञान का यह सत्य उस समय धूमिल पड़ गया था कि हैजा संक्रामक रोग है। हरदौल के चबूतरे के आसपास शरण लेने वाले एक भी व्यक्ति को हैजा नहीं हुआ जबकि अन्य मुहल्ले के लोग मरते रहे और उन्हीं में से भागकर लोग वहां शरण ले रहे थे।

कुँबर साहब

बुन्देलखण्ड के प्रायः प्रत्येक गांव में, गांवके बाहर अथवा भीतर एक चबूतरे पर दो ईंटें रखी रहती हैं जिन्हें कुंवर साहब का चबूतरा कहा जाता है। इन्हें जनमानस में लोक देवता के रुप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। सामान्य व्यक्तियों को इनके सम्बन्ध में केवल इतना ही बात है कि ये कोई राजपुत्र थे। अनेक स्थानों पर बहुत प्राचीन सपं के रुप में भी ये दिखाई देते हैं। उस समय एक दूध का कटोरा रख देने से ये अदृश्य हो जाते हैं। ऐसा लोगों का विश्वास है।

रतनागिरी की माता और कुँवर साहब

दतिया जिला के सेंवढ़ा से आठ मील दक्षिण पश्चिम की ओर रतनगढ़ नामक एक स्थान है। यहां कोई गांव नहीं है। एक ऊंची पहाड़ी पर दुर्ग के अवशेष मिलते हैं। दुर्ग सम्पूर्ण पत्थर का रहा होगा, जिसकी दीवारों की मोटाई बारह फीट के लगभग है। यह पहाड़ी तीन ओर से सिन्धु नदी की धारा से सुरक्षित है। इसी विचार से यहदुर्ग बनाया गया होगा। स्थान अतयन्त ही रमणीक रहा होगा। घने जंगल के बीच में है। यहां उस पहाड़ी पर एक देवी का मंदिर बना हुआ है जिसे रतनगढ़ की माता के नाम से जाना जाता है। गत दो दशकों तक दस्युओं के आंतक के कारण यहां लोगों का आना जाना कम ही हो गया था। कार्तिक शुक्ल द्वितीया को यहां एक मेला भरता है जिसमें अनेक व्यक्ति देवी की मनौती मनाने के लिए आते हैं, जिसकी कामना पूर्ण हो जाती है, वे देवी को प्रसाद चढ़ाने, ब्राह्मण को भोजन कराने और देवी की आराधना में बोये हुए यवांकुर चढ़ाने के लिए आते हैं। इस स्थान की ख्याति दूर-दूर तक एक सिद्ध पीठ के रुप में है। यहां से सात आठ मील की दूरी पर ही देवगढ़ का किला है जो बहुत कुछ ठीक स्थिति में है। किले के अनेक कमरों में ताले पड़े हुए हैं जिन्हें कदाचित शताब्दियों से नहीं खोला गया। कहते हैं कि इस स्थान पर रात को कोई ठहर नहीं सकता जिन्होंने ठहरने का दु:स्साहस किया, उनके शव ही दूसरे दिन पाये गये। रतनगढ़ के राजा रतन सिंह के सात राजकुमार और एक पुत्री थी। पुत्री अत्यन्त सुन्दरी थी उसकी सुन्दरता की ख्याति से आकर्षित होकर उलाउद्दीन खिलजी ने उसे पाने के लिए रतनगढ़ की ओर सेना सहित प्रस्थान किया। घमासान युद्ध हुआ जिसमें रतन सिंह और उनके छः पुत्र मारे गये। सातवें पुत्र को बहिन ने तिलक करके तलवार देकर रणभूमि में युद्ध के लिए बिदा किया। राजकुमारों ने भाई की पराजय और मृत्यु का समाचार पाते ही माता वसुन्धरा से अपनी गोद में स्थान देने की प्रार्थना की। जिस प्रकार सीता जी के लिए माँ धरित्री ने शरण दी थीं, उसी प्रकार इस राजकुमारी के लिए भी उस पहाड़ के पत्थरों में एक विवर दिखाई दिया जिसमें वह राजकुमारी समा गई/ उसी राजकुमारी की यहां माता के रुप में पूजा होती है। यहां यह विवर आज भी देखा जा सकता है। मुसलमानों से युद्ध का स्मारक हजीरा पास में ही बना हुआ है। हजीरा उस स्थान को कहते हैं जहां हजार से अधिक मुसलमान एक साथ दफनाये गये हों। विन्सेण्ट स्मिथ ने इस देवगढ़ का उल्लेख किया है जो ग्वालियर से दस मील की दूरी पर है। युद्ध में मारे जाने वाले राजकुमार का चबूतरा भी यहां बना हुआ है जिसे कुंवर साहब का चबूतरा कहा जाता है।

किसी भी पुरुष अथवा पशु को सांप काटने पर प्रायः कुँवर साहब के नाम का बंध लगा दिया जाता है जिससे विष का प्रभाव सारे शरीर में व्याप्त नहीं होता। यह बंध कोई धागा आदि नहीं होता जिसे बांधा जाता हो। केवल कूँवर साहब की आन देकर उस स्थान के चारों ओर उंगली फेर देते हैं, इसी को बंध कहा जाता है। दीपावली के पश्चात पड़ने वाली द्वितीया के मेले में इस चबूतरे के पास सपं दंश वाले ऐसे लोगों और गाय, बैल, भैंस आदि के बंध काटे जाते हैं। विचित्र बात तो यह कि पुजारी के बंध काटते हो उस व्यक्ति को मूर्छा आती है, उसे चबूतरे का परिक्रमा कराकर घर जाने दिया जाता है। लेखक को एक बार अपने कुछ साथियों सहित इस चमत्कार को देखने का अवसर प्राप्त हुआ। एक के बाद एक इस प्रकार के अनेक स्री पुरुष जाते गये और बंध काटने के समय उन्हें उनके साथी सहारा देकर चबूतरे की परिक्रमा कराते रहे। पर जब एक बैल का बंध काटने के पश्चात वह चक्कर खाकर गिर पड़ा तो इस चमत्कार को देखकर हम लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। हम लोग भी कुँवर साहब के इस प्रभाव के सामने सिर झुकाकर चले आये।

कारसदेव

इस क्षेत्र में प्रायः अनेक गाँवों में कारसदेव के चबूतरे बने हुए हैं। यहाँ पतिमास की चतुर्थी को रात के समय गोपालक तथा अन्य व्यक्ति इकट्ठे होकर ढाक ढक्का बजाते हैं। यह डमरु के आकार का एक वाद्य होता है जिसे बजाते समय पैरों का उसी प्रकार उपयोग करना पड़ता है जिस प्रकार हाथ से कपड़ा बुनते समय साथ ही पैर भी चलाने पड़ते हैं। वैसे तो ढाक जब पूरे जोर पर और अधिक गति से बजने लगाता है तो किसी व्यक्ति विशेष पर इनका आवेश होता है जो लोगों के दु:ख दर्द सुनकर उनके समाधान का उपाय बताता है। जब कोई दुधारु पशु, दूध कम देने लगता है, दूध दुहने ही नहीं देता, अपने बछड़े को नहीं पिलाता अथवा दूध में रक्त आने लगताह #ैतो इनके चबूतरे पर दूध चढ़ाने से ही ठीक होता है। इसलिए इन्हें यदि पशुओं का देवता कहा जाता तो कुछ अधिक असंगत नहीं होगा।

अजयपाल

बुन्देलखण्ड में झाड़-फूंक के अनेक शाबर मंत्र प्रचलित हैं जिसमें अजैपाल की आन धराई जाती है। ये सभी मन्त्र सद्य: प्रभावकारी हैं। अजयपाल का संबन्ध देवी भागवत की एक कथा से जोड़ा जाता है। सेवढ़ा में सिन्ध नदी के तट पर अजयपाल का एक पुराना स्थान जंगल में है, जहां कोई मर्ति नहीं है। उसे अजयपाल का किला समझा जाता है। यहां वर्ष में एक बार दूर-दूर से लोग आकर अजयपाल की पूजा करते हैं।

कुलदेवता

बुन्देलखण्ड में कुलदेवता की पूजा को बाबू की पूजा कहा जाता है। यहां प्रत्येक जाति और वर्ग में भिन्न-भिन्न तिथियों में बाबू की पूजा की जाती है। किसी के यहां माघ मास की शुक्ल पक्ष की द्वितीया को यह पूजा संपन्न होती है तो किसी के यहां मार्गशीर्ष द्वितीया अथवा फाल्गुन शुक्ल पक्ष की द्वितीया को। परिवार में किसी पुरुष का विवाह होने पर जब नव वधू घर में जाती है तो उस अवसर पर बिना किसी तिथी का विचार किए बाबू की पूजा की जाती है। यह एक प्रकार से अन्य कुल से आने वाली वधू का स्वकुल में लेना कहा जा सकता है। इस पूजा में केवल वही लोग सम्मिलित किए जाते हैं जो स्वगोत्र होते हैं, यहाँ तक की अपनी लड़की तक को इसमें सम्मिलित किए जाते हैं जो स्वगोत्र होते हैं, यहाँ तक की अपनी लड़की तक को इसमें सम्मिलित नहीं करते, न बाबू की पूजा का प्रसाद ही किसी अन्य को दिया जाता है।

मातृका-पूजन

शास्रों में गौर्यादि षोडशमात्रिका, सप्तधृत मातृका का उल्लेख आता है, मांगलिक असर पर इनके आवाहन पूजन के मन्त्र भी हैं जिनसे इनकी पूजा की जाती है। बुन्देलखण्ड में स्रियाँ किसी भी स्थान पर पुतलियों के चित्र बनाकर इनकी पूजा करती है। इसे माय पूजा कहा जाता है। माँगलिक अवसर पर कल्याण प्राप्ति और कार्य की निर्विघ्न सम्पन्नता के लिए कहीं गोबर तो कहीं मिट्टी अथवा शक्कर की पुतलियां बनाकर उनकी प्रतिष्ठा और पूजा की जाती है। विवाह आदि कार्य सम्पन्न हो जाने पर इन्हें विदा किया जाता है। कुल देवता और मातृका को मिला कर सायं-बाबू की पूजा कहा जाता है अथवा निषेधपरक अर्थ में देवी-बाबू भी कहा जाता है। सहयोग के लिए कहा जाता है - हमारे उनके माय-बाबू एक ही है। असहयोग के लिए कहा जाता है - हमारे उनके देवी-बाबू अलग अलग हैं।

इस प्रकार बुन्देलखण्ड में आस्था और विश्वास के प्रतीक पशुपति कारसदेव के रुप में पूजित हैं तो कुल देवता और मातृका मायंबाबू के रुप में पूज्य है।

इतै कृष्ण रणछोड़ कहाए ढुकत फिरै ओली में। मिश्री सी है घुरै इतै की बुन्देली बोली में।।
त्रेता को औतार डांग में पर्ण कुटी सिंगारै। वीर भूमि बुन्देलखण्ड को सबरो देश निहारे।।
चन्देरी शिशुपाल से कृष्णचन्द्र की ठनी रही, भले प्रान की हानि हो गयी। आन शान की बनी रही,
झब्बूदार पनइया देखों जिसकी मुकुट निशानी में, बुन्देलों की सुनो कहानी, बुन्देलों की बानी में, पानी
दार यहां का पानी, आग यहां के पानी में#े, बुन्देलों की सुनो कहानी...

चम्बल केन यमुना के तीर, नर्मदा वेत्रवती के नीर।
विन्ध्य घाटी की स्वस्थ समीर, हमें ई जान से प्यारी है।
मातृभूमि बुन्देलखण्ड भगवान से प्यारी है।
धूल इन खोरन की, है काजल कोरन की।

-राजा संतोष सिंह "बुन्देला' 

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