बुंदेलखंड संस्कृति

बुन्देलखण्ड में उर्दू का विकास

खिलजी तथा तुगलक वंश के शासन काल में सैनकों की रसद --खाद्य सामग्री-- की पूर्ति करने वाले व्यापारियों के बीच संबंध रखने के लिये जिस मिश्रित --खिचड़ी-- बोलचाल की भाषा का प्रयोग प्रारंभ हुआ, वह उर्दू का आदि रुप है। इसमें फारसी, आरबी भाषा के शब्दों की बाहुल्यता रहती थी। उर्दू और हिन्दी भाषा का व्याकरण एक है, केवल शब्द बाहुल्यता और लिपि का अंतर है। काल्पी और एरछ मुगलकालीन शासन के प्राच्य विद्या के प्रमुख केन्द्र थे, जिनमें इस्लामी धर्म की शिक्षा प्रदान की जाती थीं। जौनपुर --शीराजे मशरिक-- के अनेक आलिम काल्पी में आकर बस गए। मौलाना ख्वाजगी मुरीद नसीरुद्दीन चिराNो दिल्ली, मौलाना अहमद थानेश्वरी गद्य पद्य --नज्म व नसर-- लेखन में कुशल थे। तारीखे मुहम्मदी के लेखक के पिता बिहामद खां किलेदार ऐरछ थे। "सेन साईं ऐन' बंगश पठानवंशीय रिसालदार ने सन् १८२५ ई. में अजमेर शरीफ में हजरत फिदा हुसैन से रसूलशाही सूफी फकीरी की दीक्षा ली और "इनाएते हुजूर' काव्य लिखा। दतिया के गोस्वामी किशुन दास जी आपके परम भक्त थे।
भाषा के रुप में उर्दू की शुरुआत आगरा तथा दिल्ली से हुई किन्तु साहित्यक मान्यता दकन --निजाम हैदराबाद-- वर्तमान आंध्र में प्राप्त हुई। उर्दू के प्रथम शायर "वली' और गद्यकार गेसूदराज वन्दानबाज़ आदि थे।

बुन्देलखण्ड में उर्दू की मान्यता राजा महाराजों के पत्रों में प्राप्त है, सिरनामें तथा विवरण में मालगुजारी, आवोहवा, खादिम, खिदमत आदि शब्द बहुलता के साथ प्राप्त हैं। महाराज दत्रसाल के जमाने में संत प्राणनाथ के साहित्य में फारसी, अरबी शब्दों की अधिकता दृष्टिगत होती है। खड़ी बोली के गद्य साहित्य का विकास इसी समय प्रारम्भ हो गया। १८वीं शती में बुन्देलखण्ड में दो मुस्लिम रियासतों का उदय हुआ। कदौल --बावनी-- के संस्थापक हैदराबाद के नवाब आसफजाह निजामुल्मुल्क के नाती इमादुलमुल्क गाजीउद्दीन थे। इन्हें पेशवा बाजीराव ने यमुना नदी के दक्षिणी तट पर बावन गाँव प्रदान किये थे। सन् १८०५ ई. में गाजीउद्दीन की मृत्यु हो गई। उनका पुत्र नवाब नसीरुद्दौला --१८०५-१५-- शासक बना, जिसे कम्पनी शासन ने मान्यता प्रदान कर दी। दूसरा इस्लामिक केन्द्र बाँदा था, इसके संस्थापक नवाब अलीबहादुर प्रथम थे जो पेशवा बाजीराव प्रथम और मस्तानी के वंशज शमशेर बहादुर के पुत्र थे। उनका दूसरा विवाह आगरा के सुसंस्कृत परिवार में हुआ, उर्दू के मशहूर शायर मिर्जा गालिब देहलवी की मुमानी हमशीरा थी। उनके पुत्र जुल्फिकार अली विद्वानों के आश्रयदाता थे। नवाब अली बहादुर द्वितीय स्वयं उर्दू के शायर थे। १९वीं तथा बीसवीं शती में बाँदा, झांसी, राठ, जालौन आदि सभी जनपदों में उर्दू अदब के शोअरा और क़दरदान प्रसिद्धि को प्राप्त हैं। बाँदा में वर्ग अकादमी की स्थापना सन् १९८६ में हुई। इस संस्था ने अनेकानेक उर्दू के कलामों को नये रुप में प्रकाशित किया है।

नवाब जुल्फिकारअली बहादुर सन् १८२३ ई. में नवाब बाँदा बने। उन्होंने उर्दू के शायर सादातअली खाँ को बाँदा शहर में बसाया। सन् १८२८ ई में मिर्जा असदुल्ला खां गालिब बाँदा आये व छः मास रुककर कलकत्ता गये। नामी बाँदवी भी मशहूर शायर थे। नवाब जुल्फिकारअली बहादुर के पुत्र नवाब अली बहादि#ुर सानी --द्वितीय-- को मिर्ज़ा नादिर बेग शायरी सिखाते थे। मुनीर शिकोहावादी भी लगभग आठ साल तक बाँदा में रुके। नवाब साहब ने एक मसनवी मेहरो माह सन् १८५१ ई. में लिख कर छपाई। उर्दू की इस परम्परा में अनेक शोअरा भी हुए। कामिल बाँदवी का कलाम "काविलनामा' छपा है। श्री द्वारिका प्रसाद श्रीवास्तव "शौक' का कलाम "शहर ए जनून' प्रकाशित हुआ। "काबिल' के शिष्य श्री शिवप्रसाद "वर्ग' --सन् १९०६-९७ बाँदा-- के कलाम "वर्गे' आवारा, "जुवां वर्गे गुल' भी अकादमी बाँदा द्वारा छप चुके हैं। बाँदा और गालिव पुस्तिका भी प्रकाशित है। श्री गोपी चरण बाजपेयी गोपी --जन्म १७ अगस्त १९९८ और निधन १९ मार्च १९७९ ई.-- ने स्फुट शेर लिखे हैं। उनका कौल था कि "यह जबां उर्दू है मेरी और यही बोलूंगा मैं।' नवाब साउद्दीन कदौरा --बावनी-- का कलाम "चश्म ए फैज' छप चुका है तथा निम्न पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। 

 

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