ब्रज-वैभव

पुनीत स्थल ब्रजधाम

ब्रज के अन्य लोकनृत्य


उक्त नृत्यों के अतिरिक्त ब्रज में विभिन्न अवसरों पर आमोद-प्रमोद के लिए निम्न प्रकार के लोकनृत्य प्रचलित हैं, जिनके अलग ढ़ंग और रंगरुप है। विवाह-शादियों के अवसरों पर स्रियाँ घरों में तथा विशेष आयोजनों पर सामूहिक रुप से नृत्य करती हैं। किसी भी मेले या उत्सव में इन समूह-नृत्यों को देखा जा सकता है। होली के रंग में जब ब्रजवासी गाँवों में नाचते है तो उनके सम्मुख विभिन्न भड़कीले रंग के परिधानों में चमकदार ओढ़नियाँ ओढ़े और शीश पर मंगलघट रखकर ब्रजवासिने खड़ी हो जाती है, जिससे नर्तकों का उल्लास बढ़ता है और वे उनके सम्मुख नाचते गाते हैं। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर नंदगाँव के नंद बाबा के मन्दिर में भगवान के सम्मुख जाटनियाँ मस्ती में जो नृत्य करती हैं, उसका अपना अलग ही रंग है। गू जात में स्री और पुरुष एक-दूसरे के आमने-सामने नाचते हैं और एक पाँव भूमि में जमाकर दूसरे से चक्राकार मंडल बनाते हुए बीच में हाथ से ताल देकर एक-दूसरे को हाथ के अंगूठे से ठेंगा दिखाते हुए नाचते हैं। ब्रज के अहिर सामूहिक रुप में डंडा बजाकर जब मंडलाकार नृत्य करते हैं तो नाट्य-शास्र में वर्णित लकुट रासक का दृश्य साकार हो जाता है। इसी प्रकार ब्रज के धोबियों का धोबी राग और धोबी नृत्य अपनी अलग ही विशिष्ट शैली रखता है "उड़ जा सुगना, खबर लाऊ मेरे बालम की" के स्वर जब वातावरण में गूँजते हैं तो वे ब्रज की पुरानी वन्य संस्कृति में लगी अपनी बीनों को बजाकर और चपड़ास पछाड़कर पहले बड़ा प्रभावशाली नृत्य किया करते थे, परन्तु अब काफी समय से वैसे टोल दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं। अब से कुछ समय पहले तक जब बारातें तीन दिन रुका करती थी तो विवाह के दूसरे दिन कन्या-पक्ष के दरवाजे पर ललमनियाँ नृत्य हुआ करता था। कन्या-पक्ष की नारियाँ गले का हार या हाथ की आरसी बारातियों को दिखाकर कुछ गालियाँ गाती थीं, जिन्हें बाराती बड़े रस से सुनकर समूह में एकत्रित हो जाते थे और फिर बारातियों से अपनी जोड़ मिलाकर कन्या पक्ष की नारियाँ लंबा घूँघट काढ़े उनके सामने नाचती थीं, इस नृत्य में भारी चुहल रहती थी, परन्तु कभी भी कोई पुरुष किसी नारी का अंग स्पर्श नहीं करता था।

आज की बढ़ती हुई मंहगाई और व्यस्तता ने हमारी कला और संस्कृति को झकझोर दिया है। शक्ति और संतोष के स्थान पर जीवन के प्रत्येक मोड़ पर बढ़ती हुई महत्वाकांक्षाओं की लपटे कला के नंदनवन को झूलसाने लगी है। ऐसी दशा में हमारी कला-संस्कृति की यह प्राचीन धरोहरे और नृत्य रुप कब तक जीवित रह सकेंगे? इस प्रश्न का उत्तर भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है।

 

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