ब्रज-वैभव

ब्रज कला एवं संस्कृति

प्रकृति पूजा, उत्सव, त्योहार और पर्व, सादा जीवन उच्च विचार, पाककला, कलात्मकता


 

प्रकृति पूजा

प्रकृति पूजा भी ब्रज के रोम- रोम में रमी है। जैसा हम कह चुके हैं कि ब्रज की संस्कृति मूलतः वन्य संस्कृति थी, अतः वृक्षों, पर्वतों, पक्षियों की पूजा भी ब्रज में प्रचलित है। भगवान कृष्ण ने स्वयं गिरिराज की पूजा की थी और गिरिराजजी इसीलिए ब्रजवासियों के ही नहीं, पूरे देश के इष्टदेव के इष्टदेव हैं। देश भर के भक्त प्रतिवर्ष दूर- दूर से आकर गिरिराज परिक्रमा करते हैं। ब्रज में गिरिराज को विष्णु रुप, बरसाने के वृहत्सानु पर्वत को ब्रह्मा रुप तथा नंदगाँव के पर्वत को शिव रुप माना जाता है और इनकी बड़ी श्रद्धा से परिक्रमा की जाती है। ब्रज के वन- उपवनों की परिक्रमा तो "ब्रज- यात्रा' या "वन- यात्रा' के रुप में प्रतिवर्ष देश भर से पधारे हजारों यात्री सामूहिक रुप से करते हैं। गोपाष्टमी और गो पूजन, नाग- पंचमी पर नाग पूजन तथा वृहस्पतिवार को केला तथा वट सावित्री पर्व पर बड़ की पूजा की जाती हैं। पुत्र जन्म के अवसर पर ब्रज में यमुना पूजन बड़ी धूमधाम से किया जाता है।

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उत्सव , त्योहार और पर्व

ब्रज के संबंध में कहावत प्रचलित है कि "सात बार नौ त्योहार' उत्सव, उल्लास तथा अभावों में भी जीवन को पूरी मस्ती से जीना, हंसी- ठिठोली, मसखरीव चुहलपूर्ण जीवन ब्रजवासियों की विशेषता है। नृत्य, गायन, आमोद- प्रमोद से परिपूर्ण जीवन जीने के ब्रजवासी आदी रहे हैं। होली को ही लें, तो यहाँ बसंत पंचमी से प्रारंभ होकर होली का उल्लास आधे चैत तक चलताहै। रास, रसिया, भजन, आल्हा, ढोला, रांझा, निहालदे, ख्याल, जिकड़ी के भजन यहाँ के ग्रामीण जीवन में भरे हैं, तो नागरिक जीवन में ध्रुवपद- धमाल, ख्याल, ठुमरी आदि तथा मंदिरों में समाज- संगीत की अनेक परंपराएँ यहाँ पनपी हैं, जो जीवन को निरंतर कलात्मकता, सरसता और जीवंतता से ओतप्रोत बनाए रहती हैं। स्वांग, भगत व रास ब्रज के ऐसे रंगमंच हैं, जो पूरे उत्तर भारत में लोकप्रिय हैं।

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सादा जीवन उच्च विचार

ब्रजवासियों का जीवन मूलतः आध्यात्मोन्मुख रहा है। धर्मभीरुता, सरलता, सहृदयता उनके जीवन का अंग है, इसीलिए जीवन में अत्यधिक महत्वकांक्षा और उसके लिए अनावश्यक दौड़- भाग न करके ब्रजवासी सहज संतोषी व भाग्यवादी अधिक हैं। बढिया भोजन, दूध, दही, घृत के प्रति वे विशेष लगाव रखते हैं। फक्कड़पन भी ब्रजवासियों में प्रायः पाया जाता है। मस्ती से जीना और अनौपचारिक हार्दिकता यहाँ का विशेष गुण रहा है। किसी को सारा ( साला ) कह देना यहाँ गाली मानी जाती, वरन वह एक प्रेमपूर्ण संबोधन समझा जाता है। इसीलिए कभी किसी पुराने दर्शक का कथन है कि ""बोलंत हेला, बचनंद गारी, देखी सयाम मधुपुरी तिहारी।'' कुश्ती- अखाड़े के भी ब्रजवासी प्रेमी रहे हैं। आज से ५० वर्ष पूर्व ब्रज के बाग- बगीचों में शाम को सिल- लोढ़ी खटकना, कुश्ती के जोर, मुगदरबाजी के नजारे प्रायः देखे जाते थे तथा ब्रज के मल्ल भारत विख्यात थे। परंतु अब जीवन की जटिलताओं ने यह रंग भदरंग- सा कर दिया है।

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पाककला

ब्रज के लोगों की एक विशेष थी पाककला में पारंगत होना। ब्रज के मंदिरों में जो भोगों की विविधता है तथा दूध, दही व घी के संयोग से यहाँ जो विभिन्न प्रकार के भोजन बनाए जाते हैं। वह इस क्षेत्र की अपनी विशेषता है। ब्रज के मंदिरों में छप्पन भोग, अन्नकूट या कुनवाड़ों में एक ही वस्तु को जिन विविध रुपों में बनाया जाता है, मेरे विचार से वैसी विविधता कदाचित ही कहीं अन्यत्र होगी। उदाहरण के लिए मथुरा के द्वारकाधीश मंदिर में आज भी अनेक प्रकार की पूरियाँ प्रतिदिन भोग में आती हैं। खासा पूरी, सादा पूरी, खरखरी, लुचई, मैदा पूरी जैसी अनेक पूरियाँ प्रतिदिन बनती हैं। वल्लभ संप्रदाय के भगवान श्रीनाथजी के मंदिर में जो अब मेवाड़ में विराजते हैं, जितने प्रकार के भोग प्रतिदिन बना कर भगवान को अरोगवाए जाते हैं और ॠतु के अनुसार उनमें जैसा परिवर्तन होता है, वैसी भोजन की विविधता कदाचित ही कहीं अन्यत्र होगी। इस मंदिर में ब्रज की पाक- विधा आज भी सुरक्षित है।

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कलात्मकता

ब्रज- संस्कृति में कलात्मकता भी भावना पग- पग पर दृष्टिगोचर होती है। उदाहरण के लिए बगलबंदी का पुराना पहनावा यदि देखा जाए तो उसमें जो सात्विकता तथा कलात्मकता है, वह कमीज या कुर्ते में नहीं देखी जा सकती है। ब्रजवासियों के जीवन में कलाबोध पग- पग पर प्रकट होता है, उदाहरण के लिए मथुरा पुराने समय से मुकुट- श्रृंगार तथा डोरी- निवाड़ तैयार करने में प्रसिद्ध रहा है। मथुरा- वृंदावन में सूखे रंगों से बनाई जाने वाली सांझी, फूलबंगले बनाने, केले की सजावट व पिछवाई आदि बनाने की कलाएँ मंदिरों के माध्यम से खूब विकसित हुए, जो यहाँ से बाहर भी गई और विविध रुपों में आज भी अपना आकर्षण बनाए हुए हैं। ब्रज की संस्कृति व जीवन- दर्शन की परंपरा ने अपनी इस विशिष्टता की छाप पूरे देश पर डाली है। यहाँ की भाषा ब्रजभाषा तो अपने मिठलौनेपन के लिए सर्वत्र ही प्रसिद्ध है। उसका विपुल साहित्य हमारे देश की एक मूल्यवान धरोहर है।

 

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   अनुक्रम


© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र