ब्रज-वैभव

ब्रज कला एवं संस्कृति

बहुदेवोपासना


जैसा हम पहले कह चुके हैं, ब्रजवासियों में विभिन्न में विभिन्न रक्तों का सम्मिश्रण और समय- समय पर यहाँ बसी विभिन्न जातियों के संस्कारों का समावेश है। यही कारण है कि वे बहुदेवोपासक हैं। श्री कृष्ण तो ब्रज के प्राण ही हैं। वह तो ब्रज के हृदय से कभी निकल ही सकते, जैसा कि सूरदास ने कहा है --

उर में माखन चोर गड़े।
अब कैसेहुं निकसत नहिं ऊधो ! तिरछे ह्मवैं जु अड़े।

परंतु ब्रजवासी मूलतः कृष्णभक्त होते हुए भी बहुदेवोपासक हैं। राम और कृष्ण को अभेद रुप से एक मानकर वे राम, हनुमान की पूजा करते हैं और शिव को श्री कृष्ण का अत्यंत भक्त मानकर उनकी भक्ति करते हैं। नंदगांव में श्रीकृष्ण के मंदिर की सिंहपौर पर शिवजी को कृष्ण के अनन्त भक्त के रुप में नंदेश्वर नाम से बैठाया गया है तथा वृंदावन में गोपेश्वर महादेव का प्रतिदिन सायंकाल गोपी रुप में श्रृंगार किया जाता है, क्योंकि वह श्यामसुंदर के महारास में ललिता सखी की कृपा से गोपी रुप में ही प्रवेश पा सके थे। यह मंदिर उसी घटना की स्मृति में स्थापित है। देवी- पूजा का जोर भी ब्रज में बहुत है, क्योंकि देवी तो साक्षात भगवान की योगमाया का ही रुप है, जो श्रीकृष्ण की रक्षा के लिए यशोदा के गर्भ से उत्पन्न हुई थी। उसे श्रद्धा से पूजना ब्रजवासियों का पावन कर्तव्य ही हो जाता है। 

यही नहीं, कई शाक्त देवियों को ब्रजवासी राधारानी की सखी मानते हैं। नरी सेमरी की देवी पर पशुबलि निषिद्ध है। वह केवल हलुआ- पूरी खाती हैं तथा राधारानी के सखी परिवार में मानी जाती है। नागों की पूजा की ब्रज में खूब होती है, क्योंकि नागों का भी यहाँ भारी प्रभाव रहा है। श्री कृष्ण के भ्राता बलरामजी स्वयं शेषावतार हैं, अतः उनके रिश्ते से नागपूजा भी वैष्णव धर्म में ही समाहित कर ली गई है। गोवर्धन क्षेत्र में एक बौद्ध मूर्ति पर लाल सिंदूर चढ़ाकर और उसके लंबी- लंबी काली मूंछे लगाकर ब्रजवासियों ने उसका नाम "पूंछरी का लौटा' रख दिया है। उनका कहना है कि जब कृष्ण ब्रज से गए तभी से उनका यह साख पूंछरी गांव में भूखा- प्यासा बैठा है। जिस दिन कृष्ण आकर इसे उठावेंगे, यह उठेगा। वे कहते हैं --

धन धन तोय पूंछरी के लौठा।
अन्न खाय न पानी पीवै, बैठो बनो सिलौटा।

ब्रह्मा के मंदिर भी ब्रज के चौमुंहा आदि स्थलों में है। उन्होंने भी श्रीकृष्ण की गायें चुराकर बाद में उनकी स्तुति की थी। इसलिए उनकी पूजा मे भी ब्रजवासियों को कोई आपत्ति नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि ब्रज में वैदिक युग से आज तक जितनी संस्कृतियाँ व उनके जितने देवता पधारे, ब्रजवासियों ने उन्हें अपने रंग में ढालकर अपना लिया है। यहाँ तक कि मुसलमान फकीरों के मजार, सैयद के थान भी हिंदुओं द्वारा पूजे जाते हैं। लोक जीवन में गृहीत अनेक देवता भी यहाँ पूजे जाते हैं। उनके अनेक नाम व रुप हैं।

 

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