ब्रज-वैभव

ब्रज कला एवं संस्कृति

आस्था, समपंण और समन्वय की संस्कृति


ब्रज- संस्कृति, जैसा हम ऊपर उल्लेख कर चुके हैं, अनार्य, नाग, यक्ष, आभीर, असुर, जैन, बौद्ध सभी जातियों, रक्तों और विचारधाराओं के समन्वय के वैष्णवीकरण से उद्भूत आस्था से परिपूर्ण संस्कृति है, जो उच्चस्तरीय आध्यात्मिक भाव- भूमि पर स्थित है। महामुनि व्यास के पुराणों व ब्रज के अधिनायक भगवान श्री कृष्ण की गीता की सुदृढ़ नींव पर यह खड़ी है। त्याग, वैराग्य की नहीं, प्रेम, अनुराग और जीवन के रस की संस्कृति ही ब्रज- संस्कृति है। ""सार- सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय।'' की भावना से इसने सभी विचार- धाराओं से रासतत्व ग्रहण किया है। उदाहरण के लिए जैन धर्म की अहिंसा को और दया को इसने पूरी तरह अपनाया है, यहाँ तक कि ब्रज के मंदिरों में व रसोईघरों में प्याज तक वर्जित है। आज भी ब्रजवासी शाम को चीटिंयों को चुग्गा डालते तथा यमुना में कछुओं को चने खिलाते देखे जा सकते हैं। परंतु जैनियों की जीवन से उदासीनता या बौद्ध धर्म का अनीश्वरवाद ब्रजवासियों ने स्वीकार नहीं किया। वह जीवन को सहज भाव से ईश्वर की एक बहुमूल्य देन मानकर उसे भोगने में विश्वास रखते हैं। 

जैसा कि आचार्य वल्लभ का मत हे -- ब्रजवासी साकार लीला पुरुषोत्तम को अपने आपको समर्पित करके उनको सर्वोत्तम की भेंट करना और उनकी कृपाकोर और अनुग्रह की कामना करते रहना ही अपना अभीष्ट मानते हैं, यह जीवन के प्रति अनुराग की संस्कृति हे। जीवन या संसार को असार मानकर पलायनवाद को यह अस्वीकार करती है।

 

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