ब्रज-वैभव

ब्रज कला एवं संस्कृति

तपोवन संस्कृति का केंद्र वाराह-क्षेत्र


यह प्रदेश ( ब्रज ) भगवान वाराह की जन्मभूमि व क्रीड़ाभूमि होने के कारण सतयुग से ही अभिवंदनीय है। भगवान वाराह सृष्टि के प्रारंभ काल के प्रथम अवतार है, जिनका क्रीड़ा क्षेत्र यही प्रदेश था। अतः यह स्थान प्रारंभ से ही परम पवित्र तथा ॠषियो की तपोभूमि बन गया था। यह मनीषियों की साधना का केंद्र बना। इस वन- भूमि के १२ वन तथा २४ उपवन प्रसिद्ध रहे हैं। अयोध्या त्यागने के बाद भक्त ध्रुव ने यहीं तप करके नारायण को प्राप्त किया था। नारद, अंगिरा, उद्धव, श्रृंगी ॠषि की तपस्थली के साथ रेणुका क्षेत्र ( मथुरा- आगरा के मध्य का तपोवन ) भी यहाँ का एक प्राचीन तपोवन था। गोवर्धन की तलहटी में अनेक वैदिक ॠषि तप करते थे। परासौली गाँव जहाँ बाद में सूरदासजी ने निवास किया, वैदिक युग में व्यासजी के पिता पराशर ॠषि की तपोभूमि होने के कारण पारासौली ( पाराशर- ओली ) कहलाता है। स्वयं व्यासजी का जन्म आगरा जिला का है। महाराज शांतनु की भेंट धीवर कन्या सत्यवती से मथुरा- आगरा के मध्य जंगल में ही हुई थी। इस प्रकार ब्रजक्षेत्र भारतीय तपोवन संस्कृति के विकास का प्रमुख गढ़ था। यहाँ के वन्यप्रदेश की सुरम्यता ने इसे सदा से पवित्र और चिंतन, अध्ययन तथा आध्यात्मिक विकास का केंद्र बनाया। यह तपोवन संस्कृति का प्रमुख गढ़ था। यमुना नदी की पावन धारा गंगा के पृथ्वी अवतरण से कहीं प्राचीन है और प्रारंभिक काल में इसी के तट पर आत्मचिंतन, तपस्या, उपासना तथा आराधना के केंद्र ब्रज के वन तपोवनों के रुप में विकसित हुए थे।

वैदिक युग से ही मध्यदेश ( गंगा- यमुना का क्षेत्र ) भारतीय संस्कृति का हृदय रहा है और तपोवन संस्कृति का केंद्र होने से ब्रजक्षेत्र की अपनी स्थिति रही है। यद्यपि वेदों में ब्रज शब्द गायों के चारागाह के अर्थ में प्रयुक्त है, वह तब इस विशेष प्रदेश का बोध नहीं कराता था। इस प्रदेश को प्राचीन वांगमय में "मथुरा मंडल' और बाद में "शूरसेन जनपद' कहा गया है, जिसकी राजधानी मथुरा थी, जिसे "मधु' ने बसाया था। मधु के समय जब मथुरा नगरी बसी, तब इसके चारों ओर आभीरों की बस्ती थी और वे वैदिक संस्कृति से प्रतिद्वेंद्विता रखते थे।

ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ के वनों से आकर्षित होकर यहाँ आभीर अपने पशुधन के साथ भारी संख्या में आ बसे थे और उनके वैदिक ॠषियों से मधुर संबंध नहीं थे। तब यह क्षेत्र आभीर- संस्कृति का केंद्र बन गया, जो वैदिक संस्कृति के प्रतिद्वेंद्वी व उनसे कई रुपों में भिन्न थे। आभीर गोपालक, अत्यंत वीर, श्रृंगारप्रिय थे और इनके समाज में स्री- स्वतंत्रता आर्यों से कहीं अधिक थी। साथ ही यह यज्ञ के विरोधी भी थे और संभवतः इन्हें इसीलिए मत्स्य पुराण में मलेच्छ तक कहा गया हे। मधु को पुराणों ने धर्मात्मा तथा लवण को जो उसकेउपरांत इस प्रदेश का राजा बना था, राक्षस कहा है। 

वाल्मीकि रामायण के अनुसार मथुरा के ॠषियों ने अयोध्या जाकर श्रीराम से लवण की ब्राह्मण विरोधी व यज्ञ विरोधी नीतियों की शिकायत की तो शत्रुघ्न को उन्होंने एक बड़ी सेना के साथ यहाँ भेजा था तथा मथुरा राज्य सूर्यवंश के अधिकार में चला गया था। शत्रुघ्न को छल से लवण का वध करना पड़ा था। इस घटना के सांस्कृतिक विश्लेषण से प्रतीत होता है कि रामायण काल में मथुरा की तपोवनी वैदिक संस्कृति तथा आभीरों की संस्कृति में टकराव होने लगा था। लवण के शासन काल में आभीर प्रबल हो गए थे, क्योंकि लवण स्वयं शैव था और वह वैदिक ब्राह्मणों से आभीरों के अधिक निकट था। साथ ही इस घटना से यह भी प्रतीत होता है कि इस काल में इस क्षेत्र में शैवों का भी प्रभाव बढ़ गया होगा, क्यों कि राजा लवण स्वयं शिव का अनन्य भक्त और दुर्द्धुर्ष वीर था। यहाँ तक कि वह रावण जैसे प्रतापी नरेश की पुत्री कुभीनसी का लंका से हरण कर लायाथा। अतः शैव, आभीर और वैदिक संस्कृतियाँ इस युग में इस क्षेत्र में विकसित हो रही थी और उनमें पारस्परिक टकराव भी था। ब्रज में भगवान शंकर के सर्वत्र जो शिवलिंग विराजित हैं, उनसे स्पष्ट है कि यहाँ शैव संस्कृति का भी बोलबाला था। शत्रुघ्न ने लवण को पराजित करके जब मथुरा को नए सिरे से बसाया तो ब्रज की वन्य संस्कृति में नागरिक संस्कृति का समावेश होने लगा। शासन तंत्र की सशक्तपकड़ के कारण उस समय सांस्कृतिक समन्वय की प्रक्रिया भी प्रारंभ हुई होगी। परंतु सूर्यवंशी शासन यहाँ स्थायी नहीं रह सका। श्रीकृष्ण से पूर्व ही यहाँ यादव- शक्ति का आधिपत्य छा गया जो आभीरों के ही संबंधी थे। पौराणिक वंशावली से ज्ञात होता है कि मथुरा के यदुवंशी नरेश शूरसेन व आभीरों के प्रमुख सरदास नंद ( जो श्रीकृष्ण के पालक पिता थे ) एक ही पिता दैवमीढ़??? या देवमीढ से उत्पन्न भाई थे, जिनकी माताएँ पृथक- पृथक थीं। नंदजी की माता वैश्य तथा शूरसेन की माता क्षत्रिय थीं। श्रीकृष्ण स्वयं वैदिक संस्कृति के समर्थक न थे। हरिवंश में वह कहते हैं --

वनंवनचरा गोपा: सदा गोधन जीवितः
गावोsस्माद्दुैवतं विद्धि, गिरयश्च वनानि च।
कर्षकाजां कृषिर्वृयेत्ति, पण्यं विपणि जीविनाम्।
गावोsअस्माकं परावृत्ति रेतत्वेविद्यामृच्यते।।

-- विष्णु पर्व, अ. ७

इस प्रकार श्री कृष्ण ने यज्ञ- संस्कृति के विरोध में ब्रज में जिस गोपाल- संस्कृति की स्थापना की उसमें वैदिक इंद्र को नहीं, वरन वनों व पर्वतों को उन्होंने अपना देवता स्वीकार किया। इंद्र की पूजा बंद करना वैदिक संस्कृति की ही अवमानना थी।

एक स्थान पर यज्ञ- संस्कृति से स्पष्ट रुप से अपनी असहमति व्यक्त करते हुए कृष्ण कहते हैं --

मंत्रयज्ञ परा विप्रा: सीतायज्ञ कर्षका:।
गिरीयज्ञास्तथा गोपा इजयोsस्माकिनर्गिरिवने।।

-- हरिवंश पुराण, अ. ९

इस प्रकार पौराणिक काल में जहाँ श्री कृष्ण ने यहाँ यज्ञ- संस्कृति की उपेक्षा करके गोपाल- संस्कृति की प्रतिष्ठा की वहाँ बलराम ने हल- मूसल लेकर कृषि- संस्कृति को अपनाया जो एक- दूसरे की पूरक थीं। यदि गंभीरता से विचार किया जाए तो हमारी दृष्टि में महाभारत का युद्ध भी आर्य- संस्कृति के अभिमानी राज- नेताओं के संहार का ही श्रीकृष्ण द्वारा आयोजित एक उपक्रम था। जिसके द्वारा वह एक भेदभाव विहीन सामान्य भारतीय संस्कृति का उदय देखना चाहते थे, जिसमें आर्य- अनार्य सभी उस रक्तस्नान के उपरांत एक हो गए। यही कारण है कि श्रीकृष्ण आज भी १६ कलापूर्ण अवतार के रुप में प्रत्येक वर्ग के आराध्य देव हैं। महाभारत काल या कृष्ण काल में ब्रज में असुर- संस्कृति, नाग- संस्कृति तथा शाक्त- संस्कृति का भी विकास हुआ।

 

 

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