ब्रज-वैभव

ब्रज कला एवं संस्कृति

रास की मंचीय परंपरा और उसका वर्तमान स्वरुप


वर्तमान लोकनाट्यों में रास का विशिष्ट स्थान है, जिनके अनेक कारण हैं। जिनमें से एक कारण यह भी है कि नृत्य, गायन और नाटक जैसी समानता, महत्ता और परिपूर्णता इस नाट्यरुप में विद्यमान है, वह इस रुप में अन्यत्र कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती। नृत्य और गायन के साथ- साथ रासलीलाओं में गद्य- संवाद की जो बहुलता है, मेरे विचार से वह उसे उसे परिभाषा से पृथक करती है, जिसे पाश्चात्य जगत में आॅपेरा कहा जाता है। रासलीला जैसी शेली में प्रदर्शित की जाती है वह आॅपेरा की अपेक्षा नाटक अधिक है। यह वास्तव में शुद्ध भारतीय लोकनाट्य के प्राचीन रुप का प्रतिनिधि एकमात्र मंच है। भक्तियुग में जिन महान आचार्यों ने वर्तमान रास- मंच का पुनर्गठन किया, उन्होंने इसे रास की प्राचीन परंपरा की सभी कड़ियों के साथ- साथ संस्कृत नाटक से भी जोड़कर उसे यह स्वरुप प्रदान किया था। इसलिए वर्तमान रास की चर्चा से पूर्व इसकी प्राचीन परंपरा का परिचय परमावश्यक है।




आभी संस्कृति : हल्लीसक

भगवान कृष्ण का बाल्यकाल आभीर जाति में व्यतीत हुआ था। आभीरों की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति थी, जिसमें पूर्ण नारी- स्वातंत्रय तो था ही, साथ ही वे राग- रंग के भी बड़े प्रेमी थे। उनका लोकनृत्य हल्लीश या हल्लीसक सर्वविख्यात रहा है, जिसका वर्णन अनेक लक्षण ग्रंथों में भी मिल जाता है --

मंडलेन च स्रीणां, नृत्यं हल्लीसकं सु तत्।
नेता तत्रभवदेको, गोपस्रीणां यथा हरि:।।

यह हल्लीसक नृत्य एक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें नायिका अनेक किंतु नायक एक ही होता था। इस नृत्य के लिए आभीर स्रियां उस पराक्रमी पुरुष को अपने साथ नृत्य के लिए आमंत्रित करती थीं, तो अतुलित पराक्रम प्रदर्शित करता था। हरिवंश पुराण के अनुसार आभीर नारियों ने श्री कृष्ण को इस नृत्य के लिए उस समय आमंत्रित किया था, जब इंद्र- विजय के उपरांत वह महापराक्रमी वीर पुरुष के रुप में प्रतिष्ठित हुए थे। इंद्र- विजय के उपरांत आभीर नारियों के साथश्री कृष्ण के इस नृत्य का विस्तृत वर्णन हरिवंश पुराण के हल्लीसक क्रीड़न अध्याय में हुआ है। इसी हल्लीसक नृत्य को श्रीकृष्ण ने अपनी कलात्मकता से संवार कर जो रुप दिया, वही बाद में रास के नाम से विकसित होकर "रसो वै सः' के रुप में प्रतिष्ठित हुआ।

Top

 

यदुवंशियों का राष्ट्रीय नृत्य

भगवान कृष्ण के द्वारकाधीश चले जाने पर यह नृत्य कृष्णकाल में द्वारका के यदुवंशियों 
का राष्ट्रीय नृत्य बन गया था। इस नृत्योत्सव का विस्तृत वर्णन हरिवंश पुराण के "छालिक्य संगीत' अध्याय में उपलब्ध है। शारदातनय का कथन है कि द्वारका में रास के विकास में श्री कृष्ण की पौत्रवधू अनिरुद्ध- पत्नी उषा का बड़ा योगदान था, जो स्वयं नृत्य में पारंगत थी। यह पार्वतीजी की शिष्या थी, जिसने उनसे लास्य- नृत्य की शिक्षा ग्रहण की थी। उसने द्वारका के नारी- समाज को विशेष रुप से रास- नृत्य मं प्रशिक्षित किया था। द्वारका पहुँचने पर यह रास- नृत्य नाटिकाओं का रुप ले चुका था। जिसमें श्री कृष्ण व बलराम की जीवन की प्रमुख घटनाओं का प्रदर्शन होता था।

Top

 

नाट्य रासक और रासक

भरत ने अपने नाट्यशास्र में लोकधर्मी उपरुपकों के अंतर्गत रास के "रासक' और "नाट्य रासक' दो रुपों का उल्लेख किया है। इससे प्रतीत होता है कि उस काल में रास के दो रुप अलग- अलग विकसित हो गए थे। "नाट्य रासक' जहाँ नाट्योन्मुख नृत्य- संगीत का प्रतिनिधि था, वहाँ इसका शुद्ध नृत्य रुप "रासक' था। "रासक' के भरतमुनि ने भेद किए हैं --

१. मंडल रासक 
२. लकुट रासक तथा 
३. ताल रासक। 

मंडजाकार नृत्य मंडल रासक, हाथों से दंडा बजाकर नृत्य करना लकुट रासक या दंड रासक और हाथों से ताल देकर समूह में नृत्य करना संभवतः ताल रासक था। यह रासक परंपरा बाद में विभिन्न रुपों में विभिन्न धर्मों और संप्रदायों में विकसित हुई ( जिसका परिचय यहाँ देना संभव नहीं है ) बाद में जैन धर्म में ही रासक परंपरा बाद बहुत लोकप्रिय हुई, क्योंकि श्रीकृष्ण के चचेरे भाई श्री नेमिनाथजी को जैन धर्म ने अपना २३ वां तीथर्ंकर स्वीकार कर लिया था। जिन्हें प्रसन्न करने के लिए जैन मंदिरों में भी रास उपासना का अंग बन गया। कहने का तात्पर्य यह है कि कृष्णकाल से प्रारंभ होकर रास की प्राचीन परंपरा विभिन्न उतार- चढ़ावों के मध्य १५ वीं शताब्दी के अंत तक या १६ वीं शताब्दी के प्रारंभ तक, जबकि वर्तमान रास का पुनर्गठन हुआ, निरंतर किसी न किसी रुप में विद्यमान रही और उसी के वर्तमान रास- मंच उद्भूत हुआ। इस प्रकार रास भारत का वह मंच है जो कृष्णकाल से आज तक निरंतर जीवित- जाग्रत रहा है। भारत में दूसरा कोई ऐसा मंच नहीं जो इतना दीर्घजीवी हुआ हो। इसी के रास की लोकप्रियता और महत्ता स्पष्ट है।

Top



नटों के हाथ में

१५ वीं शताब्दी में रास नटों के हाथ में था। जीव गोस्वामी ने इसके संबंध में लिखा है कि--

नटेगृहीत कण्ठीनां, अन्योन्यात्तरकश्रियाम्।
नर्तकीनां भवेद्रासो , मंडलीभूय नर्तनम।।

नट लोग नर्तकी युग्म के कंठों में हाथ डालकर उनके साथ जो नृत्य करते थे, वही रास था। इस विवरण से प्रकट होता है कि नटों के हाथ में रास का स्तर गिर गया था, वह बाजारु हो गया था। इसीलिए भक्तियुग में जब ब्रज कृष्ण- भक्ति का केंद्र बना तो उस युग के आचार्यों ने इस रास के पुनर्गठन की आवश्यकता का अनुभव किया। तब इस पुनर्गठित रास की बागडोर नटों के स्थान पर ब्रजवासी ब्राह्मणों के हाथों में सौंपी गई। रास के इस पुनर्गठन की चर्चा से पूर्व हम भरत द्वारा वर्जित नाट्य रासक परंपरा पर भी दृष्टिपात करना चाहते हैं।

Top


ब्रजांगनाओं का लीला रास

रासक परंपरा के जनक जहाँ भगवान कृष्ण माने जाते हैं, वहाँ रास की नाट्य परंपरा की जनक ब्रज- गोपी थीं। भागवतकार के अनुसार शरद- निशा में महारास करते- करते जब श्री कृष्ण अंतर्धान हो गए तब उनके विरह में व्यथित ब्रजांगनाओं ने उनकी ब्रजलीला का यमुना- तट की बालुका में अनुकरण किया था। यह कृष्ण- लीलानुकरण लोक शैली में था, जिसके लिए चंद्रमा की चांदनी ने प्रकाश की व्यवस्था की, वृंदावन के यमुना- पुलिन का रमणीय तट उसका मंच बना तथा स्वयं गोपियों के वस्र ही उस समय दृश्यवंध बनाने के उपकरण बने। गिरिराज धारण का दृश्य गोपिकाओं ने अपनी ओढ़नी द्वारा बनाया था। इन गोवियों ने रासलीलाओं के अनुकरण की जो परंपरा स्थापित की उसी का विकाश हमें हरिवंश पुराण में आरोजित राज वर्णन में मिलता है, जहाँ देवांगनाओं ने आकर विभिन्न कृष्णलीलाओं का प्रदर्शन किया था। हमारे संस्कृत ग्रंथों में भी रास के नाटकीय प्रदर्शन के कई उल्लेख उपलब्ध हैं। "कर्पूर मंजरी' में विभिन्न रसों की अभिव्यक्ति नर्तकियों द्वारा की जाने का विस्तृत विवरण उपलब्ध हैं।

Top


आचार्यों द्वारा नया रुप

भक्तियुग में भगवान कृष्ण की लीलाओं की प्रत्यक्ष अनुभूति स्वयं करने और जनता को कराने तथा उन्हें श्रीकृष्णोन्मुख बनाने के लिए ब्रज के भक्ताचार्यों ने वर्तमान रास- मंच को एक रुप में गठित किया। इस मंच के गठन से जिन आचार्यों के नाम जोड़े जाते हैं, उनमें पुष्टि संप्रदाय के संस्थापक महाप्रभु वल्लभाचार्य, सखी संप्रदाय के जनक महान संगीतज्ञ स्वामी हरिदासजी, राधावल्लभीय संप्रदाय के अधिष्ठाता महाप्रभु हित हरिवंशजी तथा परम रसिक श्री हरिराम व्यास और माधव गौड़ेश्वर संप्रदाय के श्री नारायण भ गोस्वामी के नाम उल्लेखनीय हैं। 

एक अनुश्रुति के अनुसार पुनर्गठित रास का पहला प्रदर्शन मथुरा में विश्रांत घाट पर महाप्रभु बल्लभाचार्यजी तथा स्वामी हरिदासजी के सान्निध्य में हुआ था, जिसमें राधा- कृष्ण व गोपी बनने वाले सभी स्वरुप रास से ऐसे अलोप हुए कि वे फिर मिले ही नहीं, इसलिए वह रास अपूर्ण ही रह गया। तब वल्लभाचार्यजी ने करहला निवासी घमंडदेवजी को आज्ञा दी कि वह ब्रज के ब्राह्मण बालकों को लेकर रासारंभ करें। 

इस प्रकार रास की पहली मंडली स्वामी घमंडदेवजी ने करहला में स्थापित की और वहीं प्रथम रासमंडल स्थापित हुआ। करहला ब्रज के रासधारियों का पुराना गढ़ है। वहीं के उदयकरण, खेमकरण, विक्रम, रामराय, कल्याणराय आदि रासधारी बड़े प्रसिद्ध थे। रामराय और कल्याणराय के सहयोग से ही नारायण भट्टजी ने रास का व्यापक प्रचार किया। नारायण भ जी ने ही रास में नृत्य के उपरांत श्री कृष्णलीला की परंपरा स्थापित की। वह स्वयं बड़े मधुर गायक और कवि थे। परवर्ती युग में करहना के राधाकृष्ण रासधारी बड़े प्रसिद्ध हुए। उनकी कला पर रीझ कर दतिया नरेश भवानीसिंह ने अपने यहाँ रखा था। उन्होंने अपने राजदरबार में एक स्थायी रासमंडली वर्षों रखी थी। राधाकृष्ण रासधारी ने ही "रास- सर्वस्व' नामक ग्रंथ की भी रचना की थी। इनके बाद करहला के चोथा स्वामी और लाड़िलीशरण रासधारी बहुत प्रसिद्ध हुए। लाड़िलीशरणजी का स्वर्गवास अभी हाल में ही हुआ है। उन्हें हम करहला की रास परंपरा का अंतिम अवशेष कह सकते हैं।

Top

करहला के बाद वृंदावन

करहला के उपरांत रास का सर्वाधिक विकास वृंदावन के रसिक भक्तों ने किया। वृंदावन के राधा- भक्ति प्रधान रसिक संप्रदायों ने रासलीलानुकरण को अपनी उपासना के अंग के रुप में मान्यता प्रदान की थी। महाप्रभु हित हरिवंशजी ने वृंदावन में चैन घाट कर स्वयं सर्वप्रथम एक रासमंडल बनवाया। स्वामी हरिदासजी और हरिवंशजी स्वयं रासलीला में समाजी के रुप में गायन करते थे। इस तथ्य को व्यासवाणी में स्वयं व्यासजी ने स्वीकार किया है। वह लिखते हैं -- ""हरिदासी हरिवंशी गामैं व्यास चिराग दिखामैं'' हिताचार्य के समय रास से वृंदावन का जो संबंध जुड़ा, वह तब से आज तक अटूट बना हुआ है। राधावल्लभ संप्रदाय के भक्तों का रास के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है। इस संप्रदाय के संत चंद्रसखीजी ने रास के लिए विपुल साहित्य तो लिखा ही, साथ ही वे स्वयं रासमंडली के साथ देशाटन भी करते थे। चाचा हित वृंदावन दासजी ने राधा की महत्ता प्रतिपादन के लिए अनेक नवीन लीलाओं की रचना की, जैसे "बनजारी लीला', "दुलरीलीला', गुड़ियालीला' आदि। छद्मलीलाओं के तो चाचाजी सम्राट थे। ४२ छद्मलीलाएँ रच कर उन्होंने रास की पैठ रसिकों के अंतर्मन में बहुत गहरी करा दी थी। राधा को स्वकीया ( श्री कृष्ण की पत्नी ) मानकर चाचाजी ने उनके श्री कृष्ण के साथ विवाह का वर्णन अपने ग्रंथ "लाड़ सागर' में बड़े विस्तार से किया है, जिसको लीला के रुप में इस संप्रदाय के रसिक महात्मा अब भी बड़ी धूम से करते हैं ओर कई दिन तक यह विवाहोत्सव रचाया जाता है। बाद में नारायण स्वामीजी ने भी अनेक रास- पदों व लीलाओं की रचना करके रास- साहित्य को समृद्ध किया। भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र की पदावली के अतिरिक्त उनकी चंद्रावली नाटिका भी रासधारी "बड़ी चंद्रावली लीला' के नाम से वर्षों तक ब्रजभाषा रुपांतर के साथ अभिनीत करते रहे। 

इस प्रकार महाकवि जयदेव, सूर तथा अष्टछाप के कवियों की वाणी रसिक भक्तों की पदावली, निंबार्क संप्रदाय के श्री हरिव्यासदेवजी की अष्टछाप की पदावली और परवर्ती सभी कवियों का साहित्य रास- मंच का अभिन्न अंग है। रासधारियों ने स्वयं भी विपुल मात्रा में रास- साहित्य की रचना करके समय- समय पर इस मंच की अभिवृद्धि की है।

Top


वर्तमान युग में

स्वर्गीय मेघश्याम वर्तमान युग के लोकप्रिय रास- साहित्य रचयिता थे। उन्होंने प्राचीन महात्माओं की पदावली को रसियों में ढाल कर रास के संगीत का सरलीकरण किया और उसके शास्रीय संगीत को लोक रुप देकर रासधारियों का बोझा बहुत हल्का कर दिया।

इस युग में वृंदावन ही रास का प्रमुख गढ़ है। वर्तमान में वयोवृद्ध स्वामी किशनलालजी के साथ- साथ स्वामी कुंवरपालजी, स्वामी हरिगोविंदजी, स्वामी रामस्वरुपजी, स्वामी वेदरामजी, स्वामी देवकीनंदन जी, स्वामी श्रीरामजी, फतेहरामजी, स्वामी फतेहकृष्णजी आदि ऐसी अनेक विभूतियाँ हैं, जो रास की ध्वजा को ऊँची उठाए हुए हैं, वैसे आज भी पूरे ब्रज में बड़ी- छोटी लगभग ५० रासमंडलियां विद्यमान हैं, जिनमें से अधिकांश की आर्थिक स्थिति खस्ता है।

Top


रास का स्वरुप

यह सभी मंडलियाँ अपने स्तर और साधनों के अनुरुप परंपरागत शैली मं रास करती हैं। रास का जो स्वरुप भक्तियुग में निर्मित हुआ था, वहीं ढ़ांचा पारंपरिक रुप में साधारण हेर- फेर के साथ आज भी विद्यमान है। रास का यह प्रदर्शन दो भागों में होता है --

१. नित्यरास
२. रासलीला।

नित्यरास में भगवान कृष्ण, राधा व सखी परिकर के साथ सिंहासन पर विराजमान होते हैं, तब पर्दा खुलता है। उसे समय समाजी वंदना के भक्तिरसपूर्ण पद गाते हैं, फिर मुख्य समाजी ध्रुपद गायन करते हैं। ध्रुपद के उपरांत सखियों द्वारा प्रिया- प्रियतम की आरती की जाती है और उनसे रासमंडल में पधारने ठीक प्रार्थना की जाती है। तब कृष्ण- राधा के साथ नृत्य के लिए पधारते हैं और परंपरागत ढंग से परमलुओं पर पहले सामूहिक तथा इसके उपरांत पृथक- पृथक नृत्य होते हैं। नृत्यों के बाद सामूहिक गायन व नृत्य भी होते हैं। कभी- कभी रास में श्रीकृष्ण के प्रवचन तथा झांकी भी होती है। नित्यरास के इस क्रम में मंडलाकार व पंक्तिबद्ध नृत्य तो होता ही है, कभी- कभी दंडे भी बजाए जाते हैं। इस प्रकार भरत ने रासक के जो तीन विभद बतलाए हैं, वर्तमान नित्यरास उन सभी का समन्वित स्वरुप है।

नित्यरास के बाद कुछ समय के लिए पर्दा आ जाता है। समाजी पद- गायन द्वारा पुनः उस दिन प्रदर्शित की जाने वाली लीला की भूमिका के रुप में पद- गायन करते हैं और पर्दा खुलने पर ब्रजबिहारी श्री कृष्ण की कोई एक लीला मंच पर गद्य- संवादों, नृत्य व गायन के माध्यम से प्रस्तुत की जाती है। लीला समाप्ति पर पुनः आरती होती है और रास का यह दूसरा क्रम जो प्राचीन नाट्य रासक का ही वर्तमान रुप है, समाप्त हो जाता है। रासलीलाओं में नृत्य- गायन के साथ अभिनय की प्रमुखता रहती है। इस प्रकार प्रदर्शन शैली की दृष्टि से रास भारत के परंपरागत नाट्यरुपों में प्राचीनतम और अनुपम है। जिसे भारतीय विचारकों ने दर्शन की भावभूमि पर प्रतिष्ठित करके सर्वाधिक महिमा मंडित बना दिया है। रास साहित्य की दृष्टि से भी सर्वाधिक समर्थ मंच है, जिसे विगत वर्षों में स्वामी हरिगोविंद ने विशेष रुप से प्रदर्शन के रुप में और भी भव्य बना कर जनमानस से जोड़ा है। विशाल प्लेटफार्म पर आकर्षक अनेक पर्दे, कुंज तथा लीला प्रसंगानुसार झांकी बनाकर स्वामीजी ने इस मंच को पिछले वर्षों में ऐसा रुप दे दिया है कि रास जहाँ पहले रसिक भक्तों का मंच या राजदरबारों की शोभा था, वहाँ अब रासलीला में भी मेले की भांति हजारों दर्शकों की भीड़ उमड़ती है। खेद है कि फिर भी यह मंच विकासशील है, ऐसा नहीं कहा जा सकता।

Top


वर्तमान स्थिति

रास के साहित्य और संगीत का स्तर दिनों- दिन गिरता जा रहा है। स्वामी मेघश्यामजी ने विगत काल में लोकधुनों में जो रास- साहित्य रचा उसे सरल और सुगत जानकर सभी मंडलियों ने अधिकाधिक अपनाने की चेष्टा की। फल यह हुआ कि प्राचीन सिद्धभक्तों की उच्चकोटि की पदावली के स्थान पर अब और भी बहुत- सी साधारण कोटि की रचनाओं का प्रचलन रास में बढ़ गया है। नब रासधारी अब रास के साथ- साथ अपनी तुकबंदी भी उसमें जोड़ने लगे हैं। नतीजा यह है कि ब्रजभाषा का यह मंच जो लगभग चार शताब्दी तक अपने स्वरुप को अक्षुण्ण बनाए रहा, अब रंग बदल रहा है। लोकधुनों के साथ- साथ सिनेमा के गीतों की पैरोडियाँ और उर्दू की गजलें भी अब रास में घुस बैठी हैं। उदाहरण के लिए आज रास में बालकृष्ण के दर्शन के लिए जब भगवान शंकर गोकुल पहुँचते हैं और यशोदा उन्हें अपने बालक को दिखाने का विरोध करती हैं, तो रास के महादेव गाते हैं -- ""दर पर ही आज हम तेरे धूनी रमाएँगे, उठकर न जाएँगे।'' आप विचार कर सकते हैं कि यह गजल महादेव के स्वरुप की परंपरागत मान्यता का कैसा क्रूर उपहास है। इसी प्रकार कंस के दरबार में भी अब खड़ी बोली के साथ- साथ उर्दू का बोलबाला है। ब्रजभाषा अधिकांशतः बड़े पात्रों से उठती जा रही है, जिसकी कि मिठास ही इस मंच का मुख्य आकर्षण है। पता नहीं इस रास को देखकर सूरदासजी या हरिवंशजी की आत्माओं पर क्या बीतती होगी ?

संगीत का स्तर तो आज की बड़ी से बड़ी मंडली में भी ह्रासोन्मुख है। यदि कटु सत्य कहने के लिए हमें क्षमा किया जाए तो कहा जा सकता है कि रासमंडलियों के ५० प्रतिशत तो स्वामी ही बेसुरे बोलते हैं। फिर उनके पात्र कैसे होंगे ? यह अनुमान किया जा सकता है। इस समय बड़ी- से- बड़ी मंडली में भी ७० प्रतिशत कलाकार अवश्य बेसुरे हैं या संगीतशून्य हैं। इस दोष को छिपाने के लिए हमारे स्वामी रामस्वरुप जी ने तो अब रास की शैली ही बदलने की चेष्ठा की है। वे प्रायः सभी पदावली को स्वयं ही अपने ललित कंठ से गाकर पात्रों से प्रायः अर्थ मात्र कराने लगे हैं। ऐसी दशा में रास की वह विख्यात गायकी जो पुरानी बंदिशों वे राग- रागिनियों पर आश्रित थी, अब निरंतर काल कवलित होती जा रही है। पता नहीं संगीत की अब तक ऐसी कितनी बंदिशें मिट चुकी हैं।

Top


नवीनता के चक्कर में

रास के प्राचीन नृत्यों को भी अब रासधारी छोड़ रहे हैं। नवीनता के चक्कर में कुछ कत्थयों से नए नृत्य तैयार कराकर उन्हीं के द्वारा सस्ती वाहवाही लूटने की होड़ पिछले कुछ वर्षों से स्वामियों में प्रारंभ हो गई है। रास के प्राचीन नृत्य प्रायः धमार, दादरा या चर्चरी में थे। वास्तव में रास की मुख्य तालें ही ध्रुपद, धमार रही हैं, जो रास को स्वामी हरिदासजी की अनुपम देन थीं। परंतु आज का अधिकांश रास कहरवा व त्रिताल में ही हो जाता है।

पहले रास में सारंगी, पखावज, किन्नरी, झांझ आदि प्रधान वाद्य थे। वर्तमान में हारमोनियम के साथ तबले ने जुड़कर पुराने सब साजों को मैदान से खदेड़ दिया है। सारंगी व पखावज वादकों का तो अब अकाल- सा ही है।

Top


रास का ह्रास रोकिए

रास की पुरानी सहज और स्वाभाविक वेशभूषा भी अब लुप्त हो गई है। वर्तमान रुपसज्जा में स्टील का प्राधान्य है। स्टील के पर्दे, स्टील की पोशाक तथा स्टील की तड़क- भड़क ही मानों आज रास का आकर्षण है। रास के कलात्मक ह्रास को ढकने के लिए आज की रुपसज्जा, मुखसज्जा, दृश्य- विधान और बाह्य आडंबरों ने मंच को चमत्कार युक्त बनाने की चेष्टा की है, जो साधारण जन के आकर्षण का कारण तो है, परंतु प्रबुद्ध समाज को उससे प्रभावित नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि पुरुष समाज से अधिक आज नारी समाज का ही आकर्षण रास के प्रति अधिक है। मेरा अपना विचार है कि हमारे आज के रासधारी इस समय अपने पथ से भटक गए हैं। रास जैसे सरस, सहज खुले मंच को स्टील से जकड़ना उसके दम घोंटने की एक ऐसी प्रक्रिया है, जो उसे किसी दिन अवश्य ही ले बैठेगी। आज रास जो रुप ले रहा है। यदि वह यों ही चलता रहा तो शायद रास का नाम भले ही जीवित रहे किंतु उसकी आत्मा अवश्य ही मर मिटेगी, जिसकी कि प्राण प्रतिष्ठा हमारे भक्ताचार्यों ने अपने प्यार और दुलार से की थी। आज रास की दशा उस वृक्ष के समान है, जिसकी जड़ें काटी जा रही है और पत्तों को सींचा जा रहा है। अतः उ.प्र. संगीत नाटक अकादमी तथा कृष्ण रंगमंच के प्रेमियों का यह प्रामाणिक और पावन कत्तव्य है कि रास के इस प्राचीन वट वृक्ष की रक्षा का तत्काल उपाय करें।

संदर्भ :- गोपाल प्रसाद व्यास, ब्रज विभव, दिल्ली १९८७ ई. पृ. ५३६- ५४२

 

Top

   अनुक्रम


© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र