ब्रज-वैभव

ब्रज कला एवं संस्कृति

रास-नृत्य : स्वरुप और विकास

रास-मंच का स्वरुप विधान


१६ वीं शती में रास- मंच के पुनगर्ठन की महती कामना को लेकर अग्रसर होने वाले ब्रजोन्मुखी वैष्णव- आचार्यों ने रास- मंच के स्वरुप विधान की रुप- सज्जा तैयार कर इस दिशा में एक नए अध्याय का श्री गणेश ही कर दिया। दक्षिण के मंदिरों में देवदासियाँ गीतों के गूढ़ार्थ के अभिनय को प्रस्तुत करती थीं, ऐसा कविराज कृष्णदास के चैतन्य चरितामृत से संपुष्ट होता है। इनके अनुसार राय रामानंदजी स्वयं इन देवकन्याओं का श्रृंगार करते थे और उन्हें नृत्य- शिक्षा देकर इनसे भगवान जगन्नाथजी के समक्ष लीलाभिनय कराते थे। आंध्र के कतिपय निष्ठावान ब्राह्मणों द्वारा धार्मिक नृत्य- रुपकों को प्रस्तुत करने के लिए नाट्यमेल या भागवतमेल नाम से १६ वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध मे ऐसी मंडलियाँ भी बनाई थीं और सं. १५५९ वि. में ऐसी ही एक मंडली द्वारा विजयनगर के वीर नरसिंह राय के समक्ष प्रदर्शन भी किया गया था। नृत्य- संगीत- संवादों से युक्त तत्कालीन विधा को नाटककारों ने "संगीतक' संज्ञा से अभिहित किया है और बाणभ की "कादंबरी' में ऐसे संगीतक एवं संगीत गृहों का उल्लेख भी हुआ है। जयदेव के "गीत गोविंद' के माध्यम से श्रीमद भागवतीय रास के काव्य को गीतात्मक संलाप के द्वारा नृत्यमय प्रदर्शन की सार्वदेशिक आधारभूमि भी प्राप्त हो गई थी। उत्तरी भारत के पूर्वोत्तरीय अंचल में उमापति ठाकुर एवं ज्योतिरीश्वर ठाकुर आदि ने कतिपय युगांतरकारी संगीतकों की रचना भी कर दी थी। विद्यापति विरचित "गोरक्ष- विजय' जैसा संगीतक भी सं. १५७३ लगभग रचा जा चुका था।

इस प्रकार १५ वीं- १६ वीं शती के ब्रजमंडल में रास- नृत्य के स्वरुप को जैसा भी पुनरुज्जीवन मिला, उसकी पृष्ठभूमि में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ये सभी धाराएँ समान रुप से ग्राह्य रहीं।

रास- मंच को तात्विक प्रतिष्ठा तत्कालीन आचार्य महाप्रभु वल्लभ से प्राप्त हुई। स्वामी हरिदास जैसे रसिकाचार्य ने रास- मंच को संगीत के मधुरिम स्वरों से संवारा- निखारा। एक उत्साही साधु की भांति श्री घमंडदेवजी ने इस मंचों को व्यवस्था दी एवं लीला आयोजनों को समृद्ध बनाया। श्री नारायण स्वामी के सद प्रयासों से ब्रज की विभिन्न लीलास्थलियों का भी प्राकट्य हुआ और बूढ़ी लीलाओं के रुप में लीलास्थलियों से संबल लीलाओं के प्रदश्रन की परंपरा का श्रीगणेश भी संपन्न हो सका। कहने का आशय यह है कि उस समय सांस्कृतिक पुनरुज्जीवन का उद्देश्य लेकर ब्रज में एकत्रित संपूर्ण शक्ति का योग इस व्यवस्था को मिला जो आज तक बिना किसी राजकीय प्रश्रय के सतत प्रवहमान पावनी गंगा की तरह जन- मन को आह्मलादित करती, कोटि- कोटि भाग को आकंठ रससिक्त करती आ रही है।

रासलीलाओं के आधुनिक स्वरुप में एक ओर जहाँ चर्चरी और फागु जैसी लोक परंपराओं का सौरस्य है, वहाँ जैन- अजैन रासकों में निहित प्रबंधात्मकता को भी तात्विक रुप से कृष्णलीलाओं की वैविध्यपूर्ण प्रबंधना मे यहाँ ग्रहण किया गयाहै। रास संगीत के स्वरुप में जहाँ पक्की गायकी के यप में ध्रुपद- धमार को स्थान दिया गया है, वहाँ ब्रज के रसिया- लावनी के मादक स्वर भी उछलते- कूदते कल्लोल करते देखे जाते हैं। माँ सरस्वती की वीणा और पुस्तक-- दोंनों का उपयोग रास- मंच करता है। ब्रजभाषा की विपुल काव्य- संपदा रासलीलाओं के भक्तिभावित कलेवर का निर्माण करता है। पद- गति को परिचालित करने वाले नृत्य- बोल रास- नृत्य का श्रृंगार करते हैं। अपने समवेत रुप में ब्रज की ये लीलाएँ अपनी रासमंचीय अभिव्यक्ति में हृदयतंत्री को झंकार ही नही#े करतीं, वरन उस अलौकिक लीलारस में आकंठ निमग्न कर देती हैं, जहाँ सहृदय अपने को भूलकर उस परमतत्व से सहज तादात्म्य स्थापित कर लेता है। 


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