ब्रज-वैभव

ब्रज कला एवं संस्कृति

ब्रज-संस्कृति का अविभाज्य अंग-संगीत

संगीत समाज : वृंदगानी विद्या



इस प्रकार ब्रज में अनेक संगीतज्ञ, संत, भक्तकवि हुए हैं, जिनकी संगीत लहरी एवं परिप ज्ञान का प्रभाव भारतीय संगीत पर सदा से पड़ा है। यहाँ पर ब्रज की "समाज पद्धति' की चर्चा करना भी अपेक्षित है, जिसके प्रभाव के फलस्वरुप भारतीय संगीत में "वृंदगान' की पद्धति पल्लवित हुई। जिस काल में ग्रंथों के मुद्रण की सुविधा उपलब्ध नहीं थी, तब ब्रज के आचार्यों ने साहित्य एवं संगीत को सुरक्षित रखने के लिए "समाज पद्धति' का प्रचलन किया। यह "समाज पद्धति' ब्रजभूमि की निजी विशेषता है। "समाज' में वाद्यों सहित भक्त संगीतकार प्राचीन आचार्यों के पदों का गायन सामूहिक रुप से करते थे। "समाज' मे एक संपूर्ण दल का प्रमुख ( मुखिया ) होता है। यह मुखिया पद की जिस पंक्ति का पहले गायन करता है, दूसरा समुदाय, जो "झेला' कहलाता है, वह मुखिया की गाई हुई पंक्ति की पुनरावृत्ति करते हुए गायन करता है। 

नित्य गाए जाने वाले समाज "दैनिक समाज' कहलाते हैं तथा उत्सवों- पवाç पर "विशिष्ट समाज' होते हैं। इस "समाज द्धति' में संगीत की विशिष्ट राग- रागनियों की शुद्धता एवं माधुर्य का सुष्ठु निर्वाह किया जाता है। यह "समाज पद्धति' इतनी लोकप्रिय हुई कि मुद्रण व्यवस्था प्रारंभ एवं प्रचलित हो जाने पर भी आज तक ब्रज के मंदिरों में समाज गायन देखने- सुनने में आते हैं।

इस प्रकार ब्रज के पास संगीत की एक सुदीर्घकालीन परंपरा है, जो भारतीय संगीत में अनुप्राणित है। ब्रज गीतों की भूमि है। नृत्य की भूमि है। मुरली- वीणा की भूमि है। संगीत की भूमि है। भारतीय संगीत पर ब्रज का प्रभाव वैदिक एवं लौकिक, सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक, आंतरिक एवं बाह्य, प्रत्येक दृष्टि से पड़ा है। ब्रज के प्रभाव के ही कारण भारतीय संगीत "भारतीय' बना रहा, नहीं तो भारत में विविध जातियों के आक्रमणों एवं आगमन के फलस्वरुप भारतीय संगीत का स्वरुप ऐसा विकृत भी हो सकता था कि उसमें किंचित मात्र भी भारतीयता शेष न रह जाती। अतः भारतीय संगीत जब तक इस धरा पर विद्यमान है, वह कृष्ण की जन्मभूमि ब्रज का सदा ॠणी रहेगा, क्योंकि ब्रज- वसुंधरा ने ही भारतीय संगीत को व्यापक, उच्च, सर्वग्राही, हृदयग्राही, मधुर, महान एवं आनंदमय बनाकर उसे "सत्यं शिवं सुंदरम्' की भूमि पर प्रतिष्ठित किया। 

 

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