ब्रज-वैभव

ब्रज कला एवं संस्कृति

ध्रुवपद- धमार का केंद्र -- ब्रज

ध्रुवपद का नृत्य पर प्रभाव


ध्रुवपद ने नृत्य पर भी प्रभाव डाला है। ध्रुवपद नाची जाती थी। कई महानुभावों को इसमें संदेह हो सकता है। हमारा निवेदन है कि पूर्वकाल में देवदासियाँ मंदिरों में प्रबंध नाचती थी, गजल नहीं। आज भी श्री जगन्नाथ जी के मंदिर में श्री जयदेव की अष्टपदी नाची जाती हैं। मोहिनीअट्टम में विभिन्न स्रोत्र और अष्टपदी नाची जाती है। मुगल दरबारों में कवित्तों को गाकर नाचने का वर्णन मुगल साहित्य में मिलता है। कवित्तों का गान ध्रुवपद परंपरा के अनुरुप ही होता था। आज से चालीस- पचास वर्ष पूर्व तक श्रेष्ठ गायिकाएँ भी संगीत गोष्टियों में पहले गायन के साथ नृत्य है। "ललित लवंग लता परिशीलन कोमल मलय समीरे'' बसंत राग में इस अष्टपदी को गाते हुए स्व. विद्याधरी और गाकर नृत्य करते हुए स्व. काशीबाई को लेखक ने देखा है। ""जटा कटाह संभवं विलोल बीच वल्लरी'' शिवतांडव स्तोत्र को तथा ""मुकुट के रंगन पै इंद्र को धनुष बारौं'' झपताल की इस ध्रुवपद पर नाचते हुए जयपुर घराने के जगन्नाथ कत्थक को लेखक ने देखा और सुना है। राज दरबारों में ध्रुवपद के साथ नृत्य की परंपरा रही है। नेपाल दरबार में ध्रुवपद के साथ ही नृत्य होता था। नृत्य- शिक्षा के संबंध में नृत्यकार को संबोधित करते हुए नायक बख्शू का ध्रुवपद भी मिलता है। हाँ, नृत्य के लिए विशेष पदों को छांटा जाता था।


आनुवांशिक कीर्तनकार

ग्वालियर नरेश मानसिंह तोमर बहुत दूरदर्शी व्यक्ति था। उसने खानकाहों और कब्रों पर होने वाले देशी भाषा के गायन के माध्यम से इकट्ठी हिंदू जनता का धर्म परिवर्तन कराने की योजना को गंभीरता से देखा था। संस्कृत भाषा की अष्टपदी और स्रोत अब अज्ञेय हो गए थे। अतः मंदिरों के लिए भी सरल भाषा की एक गान- शैली की आवश्यकता का अनुभव उसने किया। उसकी प्रेरणा से ध्रुवपद के साथ ही विष्णुपद ( जिसे आकाशवाणी वाले हवेली संगीत कहते हैं ) गायन को भी प्रचलित किया गया। विष्णुपदों में भगवान कृष्ण की लीलाओं का वर्णन होता था। इन पदों को रागों और तालों में निबद्ध किया गया था। श्रद्धा के साथ सुयोग्य संगीतज्ञ द्वारा मृदंग की संगत के साथ वे पद वैष्णव मंदिर में गाए जाने लगे। गायक गुणी कीर्तनकार कहलाए, समाज में उनका सम्मान हुआ। इन कीर्तनकारों का पद आनुवंशिक हो गया। अतः इनके वंशजों की जीविका आरक्षित हो गई। 

कालांतर में इसका बुरा प्रभाव हुआ। कीर्तनकारों के वंशजों में शिक्षा और अभ्यास के प्रति प्रमाद और आलस्य बढ़ता गया। परिणामतः विष्णुपद का संगीत स्तर गिर गया। अब केवल दिन में कई बाद झांझ, मृदंग की बेसुरी- बेताली ध्वनि में कुछ गान होता है। अच्छे कीर्तनकार अब अपवाद स्वरुप ही बचे हैं।

ख्याल गायकी के विभिन्न घराने भी अधिकतर ब्रज की ही देन हैं। हाजी सुजान का आगरा घराना, पं. विशंभरनाथ का अतरौली घराना, जिसमें अल्लादिया, खाँ जन्में, गुड़गाँव के निवासी सदारंग के प्रिय शिष्य गुलाम रसूल जिनके दोहित्र बड़े मोहम्मद खाँ आदि सब मूलतः ब्रज से संबंधित है। डागर वंशी बहराम खाँ की प्रेयसी गोरखीबाई के शिष्यों ने ही पंजाब घराना चलाया। स्व. उस्ताद फैयाद खाँ होरी धमार गाते समय ""हमारे ब्रज की होरी सुनो'' बड़े गर्व के साथ कहते थे।

गत २५० वर्षों में ब्रज ने तो अज्ञात कलाकार और शास्रकार दिए हैं। उनकी चर्चा के बिना यह लेख अधूरा रहेगा। ब्रजभाषा के महाकवि देव महान संगीतज्ञ थे और उनसे सदारंग ने भी संगीत और साहित्य की शिक्षा ली थी, यह बात बहुत कम लोगों को ज्ञात है। आचार्य शारंगदेव के संगीत- रत्नाकर पर कल्लिनाथ के बाद किसी को भी टीका लिखने का साहस नहीं हुआ। ब्रज के एक सपूत पं. गंगाराम ने उस महान ग्रंथ का अनुवाद और टीका ब्रजभाषा में लिखी है।

इस शताब्दी में ब्रज ने जिन महान कलाकारों को जन्म दिया है वे भी उल्लेखनीय हैं। उस्ताद गुलाम अब्बास खाँ, उस्ताद फैयाज खाँ, हाफिज अली खाँ सरोदिए के गुरु श्री गणेशीलाल चतुर्वेदी, श्री चंदनजी चतुर्वेदी, श्री मक्खनलाल पखावजी आदि ब्रज के मान्य कलाकार हैं। स्व. चंदनजी की गायकी में संगीत के सभी तत्वों का समन्वित रुप था, रसवत्ता थी।

ब्रज ने संगीत को जो कुछ दिया उसको देश के संगीतज्ञ रख नहीं सके। अपने प्रमोद से ध्रुवपद- धमार का नाश किया और अब ख्याल की अंत्येष्टि करने पर तले हैं।



संदर्भ :- गोपाल प्रसाद व्यास, ब्रज विभव, दिल्ली १९८७ ई. पृ. ५०९- ५१७ 

 

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