ब्रज-वैभव

ब्रज कला एवं संस्कृति

भारतीय संगीत को ब्रज की देन

ब्रज-संगीत का उत्तरकाल


इस प्रकार संगीत के साथ लिपटी हुई यह भावधारा मुहम्मद शाह रंगीले के द्वारा सुगंधित हुई। मुहम्मदशाह रंगीले के दरबार में उच्चकोटि के संगीतज्ञ थे। किंतु यहाँ आते- आते संगीत का भावपक्ष निर्बल हो गया और कलापक्ष में दब गया। यहाँ अनुरंजन, अलंकरण तथा चामत्कारिक प्रयोगों का ही प्राधान्य था। ध्रुपद का स्थान ख्याल ने ले लिया, हल्की- फुल्की दादरा आदि संगीत शैलियाँ प्रचलित हुईं। उनके दरबार में जहाँ अदारंग- सदारंग के ख्यालों से रंगीनी आई, वहीं शोरीमियाँ के टप्पे लोकप्रिय हुए, कव्वाली, रेखता तराना भी गाए जाने लगे, जिनमें श्रृंगारिक भावनाएँ उद्दीप्त थीं। ख्याल शैली की खटका मुरकियों में चामत्कारिकता ही मुखर थी। ख्यालों में अधिकतर प्रणय या विरह निवेदन की ही व्यंजना होती थी, किंतु इस सीमा में भी वे इतने लुभावने बने कि न्यौछावर होने का मन करता है --

ए री मैका सब सुख दीनों, दूध पूत और मन धन लछमी।

नबाव वाजिद अली शाह के संरक्षण में ठुमरी का विकास हुआ। डॉ. श्यामसुंदर दास के शब्दों में -- अवध के अधीश्वर वाजिद अली शाह ने ठुमरी नामक गायन शैली की परिपाटी चलाई। यह संगीत प्रणाली का श्रृंगारिक रुप है। इस समय अकबर के समय के ध्रुवपद की गंभीर परिपाटी, मुहम्मद शाह द्वारा अनुमोदित ख्याल की चपल शैली तथा इन्हीं के समय में आविष्कृत टप्पे की रसमय और कोमल गायकी और वाजिद अली शाह के समय की रंगीली-रसीली ठुमरी अपने- अपने आश्रयदाताओं की मनोवृत्ति का ही नहीं, लोक की प्रौढ़ रुचि में जिस क्रम से पतन हुआ उसका इतिहास भी है। जो कुछ भी हो, किंतु ब्रजी के संगीत की यह शैली भी खूब दमकी। उसमें कोमलतम भावों की नाजुकता आई --

लंगर कांकरिया जिन मारौ,
मोरे अंगवा लग जाए।

इस प्रकार लघुत्रयी का यह इतिहास संगीत को सजाता- संवारता लाया जो भारतेंदु के समय और भी रंग लाया। भारतेंदु के समय भी इन्हीं शैलियों में रचना हो रही थी। स्वयं भारतेंदु ने जहाँ भक्तिगीतों की रचना की वहीं ठुमरियों की। क्योंकि राजदरबार का प्रश्रय न होने से वह अपनी नजाकत भूला सो धरती पर चलने लगा, अतः दोनों शैलियों ने पास- पास बैठनासीखा। गायक लोग जहाँ ध्रुपद गाते थे वहीं ख्याल- टप्पा भी और इसी के साथ ब्रजी में गीत- सृजन की परंपरा महावीर प्रसाद द्विवेदी तक आकर सुषुप्त हो गई।

इस प्रकार "मार्गी देशी विभागेन संगीतं द्विविधं मनम्' में से मार्गी संगीत (शास्रीय संगीत ) ब्रजी काव्य के साथ उपासना और राजदरबार के आश्रय में छह शताब्दियों तक खेलता- खिलता आज अपने गुरु- गंभीर रुप में वंदनीय तो बना पर भौतिकवाद के जटिल जीवन के साथ कदम न मिला सका। पर ब्रजी ने देशी- संगीत ( देशे- देशे जनानां यद्रुच्या हृदय रंजकम् -- लोक संगीत ) का साथ अब भी न छोड़ा। इतना ही नहीं, जब ब्रजी में अपना रुपरंग संवार कर कोई फिल्मी गीत थिरकता है तो उसकी अदा किसी रुपगर्विता की तिरछी नजरियों के बांकपन से कम आकर्षक नहीं होती --

मोहि पनघट पै नंदलाल छेड़ गयौ री।
कांकरिया मोहि मारी, गगरिया फोर डारी।
मोरी नाजुक कलइया मरोर गयौ री।

इस प्रकार ब्रजी काव्य और संगीत का संबंध आज नहीं सदियों पुराना होने के कारण एक रुप है। संगीत के पास जो कुछ वैभव है वह ब्रजी की धरोहर ही तो है। ब्रजी काव्य ने भी संगीत के ही द्वारा यह गौरव प्राप्त किया है। संगीत को जाने बिना ब्रजी काव्य के सच्चे इतिहास को नहीं जाना जा सकता। वहीं ब्रजी काव्य उसका जीवन- धन है। उसके शास्र ग्रंथ उसका अंग- रुप- रंग ब्रजी का ही है। जितनी चीजें हैं वे सभी ब्रजी में ही है। ये बात दूसरी है कि आज उस क्षेत्र में रचनाएँ बंद हैं, पर जो कुछ पुराना है आप उसी को गाते सुनेंगे। अतः ब्रजी को संगीत की भाषा कहें तो अत्युक्ति न होगी।

संदर्भ :-- गोपाल प्रसाद व्यास, ब्रज विभव, दिल्ली १९८७ ई. पृ.५०१- ५०८

 

 

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