ब्रज-वैभव

ब्रज कला एवं संस्कृति

भारतीय संगीत को ब्रज की देन

भक्ति-संगीत का चरमोत्कर्ष


इस युग में ( १४- १५- १६ वीं शताब्दी- मध्यकालीन भक्ति आंदोलन ) ने पुष्टिमार्ग रुपी भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के स्वर्णिम अध्याय के पृष्ठों पर ब्रजी काव्य के उदय- अभ्युदय के इतिवृत को अग्रसारित किया। पुष्टिमार्ग की सरस- सहज- सुखद एवं परम प्रेममयी उपासना- विधि में "सर्वदा सर्व भावेन भजनीयो ब्रजाधिपः' की छाया में श्रीकृष्ण के वात्सल्य, माधुर्य और साख्य भाव से लाड़ लड़ाने और रिझाने के लिए समस्त विद्या और कला- साधनाओं के साथ कीर्तन प्रणाली का सरस समन्वय हुआ। इस कीर्तन प्रणाली को मुखर बनाने के लिए आचार्य वल्लभ के द्वितीय पुत्र गुसाई विट्ठलनाथजी ने भक्ति- गीत भागीरथी के आठ महान उत्सों का सूत्रपात किया। वल्लभाचार्य ने जिन चार महान भक्त कवियों -- सूरदास, परमानंददास, कुंभनदास, कृष्णदास -- को अपने पुनीतमार्ग में दीक्षित कर कृष्णलीला गायन को प्रेरित किया था, गुसाईजीं ने अपने चार शिष्य-- नंददास, चतुर्भुजदास, गोविंदस्वामी और छीतस्वामी को मिलाकर, इन आठ महान कीर्तनकारों को अष्टछाप के रुप में वल्लभ संप्रदास के लोकमंच पर प्रतिष्ठित किया। इस प्रकार इन आठ उत्सों से नि:सृत भक्ति- संगीत की भावधारा सहस्रों स्रोतों से स्फुरित लघु- दीर्घ धाराओं को अपने में समाहित कर प्रवाहित हुई, जिसने सारे देश को "स्यामरस मज्जित' पावन किया। मानव जीवन की समस्त सौंदर्य भावना अष्टछाप के संगीत में साकार हो गई। क्योंकि ये आठों कीर्तनकार महान कवि होने के साथ उच्चकोटि के गायक भी थे। गोविंदस्वामी तो संगीत के जाने- माने आचार्य थे। दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता के अनुसार तो तानसेन ने भी धमार गायकी गोविंदस्वामी से ही सीखी थी। अतः अष्टछाप ने विष्णुपद गायन की जिस पद्धति को सजाया- संवारा वह अपने गौरव के लिए नित- नित नमस्कृत हुए।

ब्रजी काव्य- संगीत की इस प्रगति गाथा में दूसरा महत्वपूर्ण नाम संगीतावतार स्वामी श्री हरिदासजी का है। संगीत उनकी भी उपासना था, क्योंकि स्वामीजी के अनुसार राग- रंग में ही श्यामा- श्याम का नित्यनिवास है, नादसिंधु के मंथन करने पर ही उन्हें निरखा जा सकता है --

राग- रागिनी अलौकिक उपजत,
नृत्य संगीत अलग लाग लागे।
राग ही में रंग रह्यौ,
रंग के समुद्र में ए दोउ झागे।।

                -- केलिमाल


इस प्रकार हरिदासजी ने संगीत को उपासना के उस स्तर पर प्रतिष्ठित किया जहाँ वह श्यामाश्याम के निकुँज- दरबार की शोभा बना। स्वामीजी ने विदेशी तत्व मिश्रित भारतीय संगीत का परिष्कार कर ध्रुव- पद की सात्विक शास्रीय विधि को निखारा, जिसके कारण तत्कालीन संगीत सम्राट तानसेन भी इनकी शरण में आया। तानसेन के अतिरिक्त गोपाललाल, मदनराय, दिवाकर पंडित, सोमनाथ और राजा सौरसेन भी इनक संगीत शिष्य थे।

इस प्रसंग में गौड़ीय संप्रदाय- विधायक चैतन्य महाप्रभु एवं उनके शिष्य रुप और सनातन के अतिरिक्त राधावल्लभ संप्रदाय प्रवर्तक हित हरिवंश का नाम भी नमनीय है, जिन्होंने वृंदावन को केंद्र बनाकर कीर्तन भक्ति का प्रसार किया।

इस प्रकार भक्ति आंदोलन के बरदहस्त की छाया में जहाँ संगीत दिन दूना पुष्ट बना, वहीं ब्रजी की भी भरपूर उन्नति हुई क्योंकि ब्रजी ही इनके गीतों की भाषा की। आर्यावर्त के हृदय ब्रज में जनमी और पली ब्रजी उस समय सारे देश की यात्रा को मचल ही रही थी। उसे अपनी पूर्व भाषा परंपरा से उत्तराधिकार में जो अतुल माधुर्य और भाव विदग्धता मिली वह कृष्णभक्त कवियों के कोमलतम भावनाओं की अभिव्यंजना और संगीत के लिए युक्तियुक्त थी ही। इससे भी बड़ी एक बात और थी वह यह कि भक्तकवियों के सामने ब्रजी के अतिरिक्त अन्य भाषा का विकल्प भी नहीं था, क्योंकि ब्रजी इनके आराध्य श्री कृष्ण के जन्म और लीला- भूमि की भाषा थी। भक्त को जितना अपने आराध्य से प्रेम होता है, उतना ही अनुराग उससे संबंधित वस्तुओं से, अतः --

बरनन को करि सकै अहो तिहिं भासा कोटी।
मचलि मचलि मांगी हरि जामैं माखन रोटी।।

महाप्रभु वल्लभ ने तो इसीलिए ब्रजी को "पुरुषोत्तम भाषा' की संज्ञा दी। अतएव "हमारी ब्रजबानी ही बेद' बनकर वह कृष्णभक्त कवियों की रसना पर थिरकी। कृष्णभक्त कवियों की रसना पर थिरकी। कृष्णभक्त कवियों ने भी अपनी वाणी की सार्थकता तब तक न मानी, जब तक कि श्रीकृष्ण की ब्रजभाषा में कुछ आत्म निवेदन न कर लिया। यही कारण था कि भक्ति आंदोलन के रंगमंच पर संख्या से परे भक्त कीर्तनकार आए, जिनका लेखा जोख रखना ा,सपस असज इतिहास को भी दूभर हो गया। प्रमुख हैं -- हरिराय, हरिराम व्यास, काका वल्लभजी, ब्रजाधीश गंगाबाई ( बिट्ठल गिरिधरन ), कल्याण, व्यासदास, मानदास, दामोदरहित, श्रीभट्ट, अग्रदास, माधुरीदास, मुकुंद प्रभु, मेहा, धौंधी, रघुनंदन, रसखान, रसिक, रुपमाधुरी, रसिक बिहारी, रामराय, बिट्ठलदास, बिट्ठविपिन बिहारी, बिट्ठल विपुल, विष्णुदास, वृंदावन, बिंदाबनहित भूषण, सूरदास मदन मोहन, जनहरिया, हितहरिवंश, मीरा, हरिव्यास देव, रुप रसिक देव, परशुराम, ब्रजदासी, सुदर कुंवरि, तत्ववेत्ता, बिहारिन देव, सरसदेव, नरहरिदेव, पीतांबर देव, सहचरिशरण, गदाधर, गिरिधर, गोकुलनाथ गोवर्धनेश, घनश्याम प्रभु, चतुर बिहारी, जगतानंद, जयभगवान, जुगल, ताज दयाराम भाई, द्वारकेश, नवलसखी, नागरीदास, पुरुषोत्तम प्रभु, प्रान जीवन, बालकृष्ण, मथुरानाथ, अलीखान, अलीदीन, आसकरण, आनंदघन, इच्छाराम, कटहरिया, कल्याण कान्हर, किशोरीदास, कुंजबिहारी, कृष्णकमल, कृष्णजीवन, लच्छीराम, कृष्णदास, गगरीगंग, गंगग्वाल आदि- आदि....।

 

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