ब्रज-वैभव

ब्रज कला एवं संस्कृति


सूखे रंगों की चित्रकला -- सांझी

लोकनायक ललितबिहारी भगवान श्री कृष्ण और ललितकिशोरी रासेश्वरी श्री राधिकाजी की लीलास्थली ब्रजभूमि ललित कलाओं का सदा से ही एक प्रमुख केंद्र रही है। भारतीय लोकरंजित सभी ललित कलाएँ ब्रजभूमि में खूब फली- फूली और विकसित हुई हैं। जिस प्रकार ब्रज का अपना प्राचीन धार्मिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक इतिहास है, उसी प्रकार ब्रज की ललित कलाओं का भी एक लंबा इतिहास है। ब्रज या शूरसेन जनपद में ये सभी कलाएँ वहाँ के लोगों द्वारा अपनाई गईं और उनके द्वारा ही विकसित हुई। वैसे तो ललित कलाओं में स्थापत्य कला, मूर्तिकला, चित्रकला, संगीतकला सभी का समावेश है। पंरतु चित्रकला पर संगीतकला का ब्रल की कलाओं से विशेष संबंध कहा जा सकता है। कला का अर्थ है, जो चित्त को आनंद दे --
"कलयतीति कला'।

ब्रजचंद्र भगवान श्री कृष्ण लोकनायक थे। उन्होंने जो कुछ भी लीलाएँ कीं, रास आदि नृत्य किए, वे सब ब्रज के गोप- गोपांगनाओं को लेकर ही किए। वे कलानिधि थे, चौसठ कलाओं के ज्ञाता थे, अतएव उन्होंने ब्रज के लोगों को कलानुराग का पाठ पढ़ाया। ब्रज एक वन्य प्रदेश, अनेक वृक्ष, लता और पुष्पों से युक्त यमुना- कूलवत्तीं ललित प्रदेश रहा है। इसी से यहाँ के लोकमानस पर वन और उपवनों में आनंद लेने का स्वभाव रहा है। यहाँ की स्थापत्य कला में बेलबूटेदार जालियाँ, तोरण और द्वार, स्तंभ ( खंभे ) देखने को मिलते हैं। मूर्तियों में पुष्पों के सुंदर श्रृंगार देखने को मिलते हैं तथा उत्सवों तक में फूलडोल आदि के उत्सव मनाए जाते हैं। यहाँ हम मुख्यतः ब्रज की एक ललित कला सांझी पर ही प्रकाश डालेंगे।

ब्रज की सांझीकला भारतीय चित्रकला के क्षेत्र में अपना विशेष स्थान रखती है। वस्तुतः यह ब्रज की एक लोक चित्रकला है, जो वैसे तो वैदिक काल से यज्ञ में ॠषि- पत्नियाँ और ॠषि- कुमार यज्ञ मंडप सजाने के लिए बनाते थे, परंतु भगवान श्री कृष्ण के काल से इसका विशेष लौकिक रुप सामने आया। सांझीकला चित्रकला की शिक्षा के लिए एक सरल साधन है। सांझी केवल हाथ की कला कुशलता ही नहीं दिखलाती, बल्कि इसके बनाने में भूमिति का ज्ञान और प्रकृति के सहवास के ज्ञान तथा अनुभव की भी आवश्यकता होती है।

ब्रजभूमि प्राचीन ब्रह्मर्षि यज्ञभूमि रही है। यज्ञों में वैदिक कर्मकांडी लोग अपने यज्ञ मंडपों को और विशेष कर यज्ञ कुंडों के चारों ओर हरिद्रा ( हल्दी ), कुमकुम, आटे से तथा अन्य रंगीन चूणाç से कमल, स्वास्तिक बेलबूटे, लता आदि मांगलिक चिह्म बनाकर कला प्रदर्शित करते थे। आज जिसे रांगोली भी कहते हैं। अतएव सूखे रंग की यह कला वैदिक काल से ही प्रचलित है। इसके अतिरिक्त ग्रामों में स्रियाँ अपने आश्रमों और घरों को पुष्पों से सजाती थीं। किंतु श्री कृष्ण के समय से यह पुष्पों से भी बनाई जाने लगी और सांझी नाम तभी से प्रसिद्ध हुआ।

"सांझी' शब्द संध्या या सांझ शब्द से बना है। पुराणों की कथा के अनुसार श्री कृष्ण ने राधिकाजी को प्रसन्न करने के लिए शरद दिनों में यमुना के किनारे सांयकाल के समय सांझी बनाई थी। सायंकाल को जब श्री कृष्ण, राधिका तथा अन्य गोप- गोपियाँ, वन- उपवनों में विहार करने जाते थे। वहाँ के अनेक प्रकार के पुष्प चुनते थे और कालिंदी के कलित कूल पर अथवा किसी वन- उपवन में पुष्पों को भूमि पर कलापूर्ण ढ़ंग से रखकर भूमि को सजाते थे। सांझी बनाने वनों में जाते समय वे अपना भी फूलों से खूब श्रृंगार करते थे। इस प्रकार सांझीकला श्री कृष्ण- राधा और सांझ समय से संबंध रखती है। तभी तो यह कला शरद ॠतु में आसौज ( अक्टूबर के आसपास ) के महीने में ब्रज में बनाई जाती है। यह भी जनश्रुति है कि कुमारी कन्याएँ शरदकाल में नवरात्रि से पूर्व गौरी के प्रसन्नार्थ यह अनुष्ठान करती हैं। धीरे- धीरे ब्रज के कलाकारों ने इस कला की उन्नति कर, उसे विकसित कर पूर्ण कला रुप दे दिया। 

ब्रज की इस कला को पास के दूसरे प्रदेशें में जैसे राजस्थान, गुजरात तथा मध्य भारत के भी कलाकारों ने अपनाया और इसको अधिक कलापूर्ण बनाने में अपना योग दिया। ब्रज के इस कला के रसिकों ने इसको अनेक साधनों से बनाया -- फूलों की, रांगे के फूलों की, सूखे रंग की, जमीन पर और पानी पर। गाँवों में ग्रामीण बालिकाएँ और स्रियों द्वारा गोबर की सांझी बनाई जाती है तथा ग्रामीण अपने मकान के चौकों में खड़िया और गेरु से चौक पूरते हैं। इसे प्रकार ब्रज और राजस्थान में कई प्रकार की सांझियाँ बनाई जाती हैं। वैष्णव धर्म के वल्लभ संप्रदाय ने 
इस कला की रचना और विकास में निश्चय ही बहुत योग दिया। वल्लभ कुल के मंदिरों में, जिनमें भगवान श्री कृष्ण की बाल- भाव से सेवा होती है, उनमें सांझी के उत्सव के ५ दिन (आश्विन कृष्णा एकादशी से अमावस्या तक ) नियत है। इन दिनों ५ दिन तक सायंकाल इन मंदिरों में विभिन्न प्रकार से सांझी बनाई जाती है और कीर्तन में सांझी के पद गाए जाते हैं। यह परंपरा गोस्वामी विट्ठलनाथजी के समय से प्रारंभ हुई। वल्लभ संप्रदाय के अतिरिक्त अन्य वैष्णव भक्तों ने भी सांझी की महिमा गाई है। संगीत शिरोमणि स्वामी हरिदासजी ने सांझी पर एक बड़ा पद लिखा है, उसका कुछ ही अंश हम यहाँ देते हैं --

सखी वृंद सब आय जुरीं वृषभान नृपति के द्वार।
बीननि फूल चलौ बन राधे, नव सज साज सिंगार।।
ये सुनि कीरति जू हंसिकै प्यारी कौ कियौ सिंगार।
कवरी कुसुम गुही है मानों उरगन की अनुहार।।
चलति चाल मराल बाल सी राधा सखियन मांझ।
बीनति फूलनि जमुना कूलनि खेलति सांझी सांझ।।
जाल रंध्र देखत मनमोहन दृष्टि परी ब्रजबाल।
तिरिया रुप कियौ है तब हीं आय मिले तत्काल।।
छबि निखति वृषभान दुलारी भौत करी मनुहार।
बीनत फूल अकेली हेली को है तू सुकुमार।।
कौन गाँव बसति हौ सुंदरि कहा तिहारौ नाम।
आजु अबेर भई है प्यारी चलौ हमारे धाम।।
नंदगाँव में बास बसति हौं सांवरि मेरौ नाम।
सांझी मिसि आई हौं या बन कुंजें मन के काम।।
सोनजुही, चमेली, चंपा, राइ, बेलि औ बेलि।
गुलाबांस के गेंद परे का करत परसपरि केलि।।
कमल कनेर केतकी निबौरा सेबति सदा गुलाब।
गुलतुर्रा औ सदासुहागिनि फूलन की भरि छाब।
ललिता, चंपकलता, बिसाखा, श्यामा, भामा जेह।।
चंद्रभगा, तुंगा, चंद्रावलि अहि करि अति नेह।
ठौर ठौर सब कहति सखिन सों चलौ भटू घर जांहि।
श्यामजू औ नबल सखी दोऊ, गही परसपरि बांहि।।
फूल गेंद सबहिन लिए कर गावत सांझी गीति।
गजगति चाल चलति ब्रज सुंदरि, बदी वरम रस प्रीति।।
केसर चंदन और अर्गजा, मृगमद कुमकुम गारि।
कामधेनु कौ गोबर लै कैं सांझी धरति सम्हारि।।
बरनों कहा अल्प मति मेरी, रसना एक बनाई।
"श्री हरिदास' प्रभु की ये सोभा निरखति मन न अघाई।।


इस पद से तथा अन्य सांझी के कीर्तन पदों से स्पष्ट है कि यह ब्रज के लोगों का शरदकालीन पुष्पोत्सव था। इन दिनों में गोप- गोपियाँ पुष्पों की सजावट के कलापूर्ण उल्लास समय उत्सव मनाते थे। बाद में लोग सूखे रंग की व रांगे के फूलों की सांझी बनाने लगे। वल्लभ कुल के मंदिरों में जो सूखे रंग की सांझी बनाई जाती है, उसमें केवल श्री कृष्ण से संबंधित लीलाएँ एवं ब्रज के स्थान विशेष प्रदर्शित होते हैं। परंतु बाद में जो मथुरा में सांझी अन्य स्थानों पर बनती थी, उसमें रामलीला तथा अन्य लीलाएँ भी दिखाई जाती थी। पराधीनता के उस युग में जैसे हमारी शिक्षा, कला और संस्कृति का नाश हुआ, उसके अनुसार इस कला का भी ह्रास हुआ। उत्सवों में जन- जन का वह आनंद लोप हो गया और यह सांझीकला ५ दिन केवल मंदिरों में, ग्रामों में गोबर की सांझी के रुप में रह गई। कुछ कलाप्रेमियों ने इसे विविध रंगों की और रांगे के फूलों की सांझी के रुप में ऊपर कहे गए ५ दिन मात्र प्रदर्शन कर जीवित रखा। वास्तव में इसके मनोहर प्रदर्शन को देखकर चित्त अति आनंदित हो जाता है।

 

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