ब्रज-वैभव

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वार्ता साहित्य और अष्टछाप


वार्ताओं की प्रामाणिकता



वार्ताओं की प्रामाणिकता पर संदेह करने वालों में डा. धीरेंद्र वर्मा का नाम सर्वप्रथम उल्लेखनीय है। उन्होंने "क्यो दो सौ बावन वार्ता गोकुलनाथ कृत है ?' नामक लेख ५ में अपने संदेह के निम्नलिखित कारण लिखे हैं:-

१ -- इस वार्ता ( २५२ वार्ता ) में अनेक स्थलों पर गोकुलनाथ का नाम इस तरह पर आया है, जिस तरह कोई भी लेखक अपना नाम नहीं लिख सकता। इन उल्लेखों से स्पष्ट विदित होता है कि कोई तीसरा व्यक्ति गोकुलनाथ के संबंध में लिख रहा है।

२ -- ग्रंथ में औरंगजेब के मंदिर तुड़वाने का वर्णन है, जो सन १६६९ ( सं. १७२६ ) से पहले की बात नहीं हो सकती। गोकुलनाथजी का समय १५५१ ई. से १६४७ ई. तक है। इस प्रकार गोकुलनाथजी बाद की घटना से परिचित नहीं हो सकते। इसके अतिरिक्त एक और स्थान पर उसमें १६६८ की घटना तक का उल्लेख है।

३ -- चौरासी एवं दो सौ बावन वार्ताओं के अनेक रुपों में भी बहुत अंतर है। एक व्यक्ति अपनी दो रचनाओं में व्याकरण के इन छोटे- छोटे रुपों में इस तरह का भेद नहीं कर सकता।

डा. वर्मा के तर्कों के आधार पर इन वार्ता पुस्तकों के गोकुलनाथजी कृत होने में संदेह होने लगा था। पं. रामचंद्र शुक्ल जैसे धुरंधर समालोचन की भी यह सम्मति थी --

""यह वार्ता ( ८४ वार्ता ) यद्यपि बल्लभाचार्यजी के पौत्र गोकुलनाथजी की लिखी कही जाती है, पर उनकी लिखी नहीं जान पड़ती। रंगढंग से यह वार्ता गोकुलनाथजी के पीछे उनके किसी गुजराती शिष्य की रचना जान पड़ती है। दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता तो और भी पीछे औरंगजेब के समय के लगभग की लिखी प्रतीत होती है ६।

डा. माताप्रसाद गुप्त तथा अन्य विद्वानों ने वार्ताओं पर और भी प्रकार की शंकाएँ की हैं। इस समय हिंदी साहित्य के शोधकों में एक वर्ग ऐसे व्यक्तियों का भी है, जो उपर्युक्त वार्ताओं के रचनाओं के नाम और उनकी कुछ घटनाओं को ही शंका की दृष्टि से नहीं देखता, वरन पुष्टि संप्रदाय के समग्र वार्ता साहित्य को अप्रमाणिक मानता है।

वार्ताओं के मर्मज्ञ श्री द्वारिकादास पारिख ने उनका विशेष रुप से अध्ययन कर "प्राचीन वार्ता रहस्य' नामक ग्रंथ के दो भाग प्रकाशित किए हैं। द्वितीय भाग में "अष्टछाप' की वार्ताओं का संपादन किया गया है। इस पुस्तक का आधार "अष्टसखान की वार्ता' नामक ब्रजभाषा गद्य की प्राचीन पुस्तक है, जो हरिरायजी के "भाव प्रकाश' से युक्त है। इस पुस्तक का "वक्तव्य' श्री कंठमणिजी शास्री ने बड़ी खोजपूर्वक लिखा है। पुस्तक के हिंदी भाग के "वक्तव्य' में शास्रीजी ने और गुजराती भाग की "प्रस्तावना' में श्री द्वारिकादासजी परिख ने वार्ता साहित्य पर नवीन ढ़ंग से विचार कर उसकी प्रामाणिकता सिद्ध करने की चेष्ठा की है। हम इन्हीं विद्वानों के तर्कों के आधार पर डा. धीरेंद्र वर्मा, श्री शुक्लजी प्रभृति लेखकों की शंकाओं पर विचार करना चाहते हैं।

सर्वप्रथम शंका चौरासी और दो सौ बावन वार्ताओं के रचयिता के संबंध में की गई है। चौरासी वार्ता यद्यपि दो सौ बावन वार्ता से प्राचीन मानी गई है, तथापि वह भी उनको ""रंगढ़ंग से गोकुलनाथजी के पीछे उनके किसी गुजराती शिष्य की रचना ज्ञात होती है।'' गत पृष्ठों में हम गोकुलनाथजी के प्रसंग में लिख चुके हैं कि उनके मौखिक प्रवचनों को उनके शिष्यों ने लिपिबद्ध कर लिया था, जो कि बाद में हरिरायजी द्वारा संपादित होकर चौरासी और दो सौ बावन वार्ताओं के रुप में प्रसिद्ध हुए। ऐसा ज्ञात होता है कि चौरासी वार्ता वाले प्रवचन पहले लिपिबद्ध किए गए और दो सौ बावन वाले बाद को। इन प्रवचनों की मूल- प्रतियाँ भी लिखितरुप में इधर- उधर मिल जाती है। 

संभवतः किसी गुजराती लेखक की लिपिबद्ध चौरासी वार्ता की पुस्तक श्री शुक्लजी ने देखी होगी, जिसके कारण उनकी उक्त धारणा हो गई होगी। वार्ता के पाठक से यह छिपा नहीं है कि उसमें गोकुलनाथजी की अपेक्षा गोसाईजी के ज्येष्ठ पुत्र गिरिधरजी की विशेष प्रशंसा मिलती है। यदि यह पुस्तक गोकुलनाथजी के किसी शिष्य की लिखी होती, तो उसमें ऐसा होना संभव नहीं था, क्योंकि गोकुलनाथजी के शिष्य अपने गुरु से बढ़कर किसी को भी नहीं मानते हैं।

दो सौ बावन वार्ता में गोकुलनाथजी के नाम का कहीं- कहीं इस प्रकार से उल्लेख हुआ है कि यह पुस्तक स्वयं उनकी रचित ज्ञात नहीं होती। इस संबंध में पहले ही लिखा जा चुका है कि इन वार्ता पुस्तकों का गोकुलनाथजी कृत होने का केवल इतना ही अभिप्राय है कि उनका मूल रुप प्रवचन के रुप में सर्वप्रथम गोकुलनाथजी द्वारा कहा हुआ है, किंतु उनको लिखित रुप हरिरायजी ने दिया था। हरिरायजी ने ही उनके संपादन के समय प्रसंगवश गोकुलनाथजी के नाम का समावेश कर दिया है।

दो सौ बावन वार्ता में गोकुलनाथजी के बाद की घटनाओं का समावेश भी हरिरायजी ने ही अपने "भाव प्रकाश' में किया था। उन्होंने प्रसंग की पूर्णता और भावों की स्पष्टता के लिए अनेक घटनाएँ अपने अनुभव के आधार पर वार्ताओं की टिप्पणी स्वरुप "भाव प्रकाश' में व्यक्त की थीं। वे घटनाएँ गोकुलनाथजी के प्रवचन अथवा वार्ताओं के अंग रुप से नहीं लिखी गई हैं, अतः उनको गोकुलनाथजी की कृति समझना ठीक नहीं है। वे हरिरायजी के शब्द हैं, जिनके लिए गोकुलनाथजी उत्तरदायी नहीं है। हरिरायजी का देहावसान सं. १७७२ में हुआ था, अतः उनके समय में घटित औरंगजेब के मंदिर तोड़ने अथवा अन्य इसी प्रकार की घटनाओं से वार्ताओं की प्रामाणिकता पर संदेह नहीं होना चाहिए। हरिरायजी के बाद के लेखकों की असावधानी से मूल वार्ता और भाव- प्रकाश का सम्मिश्रण हो गया है, जिसके कारण हरिरायजी द्वारा लिखी हुई गोकुलनाथजी के बाद की घटनाएँ भी गोकुलनाथजी की लिखी हुई सी ज्ञात हो सकता है।

चौरासी और दो सौ बावन वार्ताओं के रुपों की व्याकरण संबंधी विभिन्नता का एक कारण तो यही है कि चौरासी वार्ता के मूल प्रवचनों को पहले लिपिबद्ध किया गया और दो सौ बावन के प्रवचनों को बाद में। फिर इन प्रवचनो को भिन्न- भिन्न व्यक्तियों ने भिन्न- भिन्न समय में लिपिबद्ध किया था, और यह लिपि- प्रतिलिपि का क्रम बहुत समय तक चलता रहा। प्रत्येक लेखक ने अपनी रुचि और विद्या- बुद्धि के कारण भी वार्ताओं के रुपों में कुछ लौट- फेर कर दिया होगा, इसलिए दोनों वार्ता- पुस्तकों की व्याकरण संबंधी विभिन्नता कोई आश्चर्य की बात नहीं है। जिस प्रति में जो रुप मिले, वह उसके लेखक की योग्यता और जिस समय की वह प्रति है, उस समय की प्रचलित लिपि- प्रणाली पर विशेष रुप से निर्भर है।

वार्ता संबंधी अनेक शंकाओं का कारण यह है कि उनको इसी रुप में स्वयं गोकुलनाथजी द्वारा लिखा हुआ मान लिया जाता है। यदि हम यह मानकर चलें कि वार्ताओं का मूल रुप गोकुलनाथजी द्वारा कहा हुआ होने पर भी वह हरिरायजी द्वारा संपादित होकर लिपिबद्ध किया गया और उस पर हरिरायजी के "भाव- प्रकाश' की रचना गोकुलनाथजी के देहावसान के कम से कम ४०- ५० वर्ष पश्चात हुई, तो हमारी बहुत सी शंकाओं का स्वयं समाधान हो जाता है।

वार्ताओं की प्रामाणिकता के पक्ष में उपर्युक्त बातों के अतिरिक्त और भी बहुत सी बातें कही जा सकती है, जिसमें से कुछ बातें यहाँ पर विचारणीय हैं --

१. वार्ताओं की सर्वत्र प्राप्त प्राचीन से प्राचीन प्रतियों पर भी "श्री गोकुलनाथजी रचित", "श्री हरिरायजी कृत', शब्द लिखे मिलते हैं, अतः इन दोनों महानुभावों के अतिरिक्त वार्ताओं के रचयिता रुप में किसी तीसरे व्यक्ति का नाम नहीं लिया जा सकता।

२. चौरासी वार्ता की प्राप्त प्रतियों में सं. १६९७ की चैत्र शु. ५ की लिखी हुई प्रति सबसे प्राचीन हैं, जो कांकरौली के विद्या- विभाग में सुरक्षित है। यह प्रति श्री गोकुलनाथजी के देहावसान के ११ महीने पूर्व उनकी विद्यमानता में गोकुल में लिखी गई थी। यदि यह प्रति प्रामाणिक है तो चौरासी वार्ता की प्राचीनता असंदिग्ध है। हमने स्वयं इस प्रति को देखा है, किंतु शीघ्रतावश

उसकी प्रामाणिकता की बारीकी से जाँच नहीं कर सके। डा. दीनदयाल गुप्त ने इस प्रति का निरीक्षण कर उसकी प्राचीनता स्वीकार की है ७ । इस प्रति से सिद्ध होता है कि वार्ताएँ सं.१६९७ तक लिखित रुप में प्रसिद्ध हो चुका थीं।

३. वार्ताओं पर गोकुलनाथजी के समसामयिक और उनके शिष्य हरिरायजी का "भाव- प्रकाश'' प्राप्त है। इससे दो बातें सिद्ध होती है। पहली बात यह है कि वार्ताओं की रचना "भाव- प्रकाश'' से पहले हो चुकी थी। भाव- प्रकाश की रचना का अनुमान सं. १७२९ के बाद और सं. १७५० से पूर्व किया गया है। सं. १७५२ की लिखी हुई चौरासी और अष्टसखान की वार्ता की भावना संयुक्त प्रति पाटन से प्राप्त हो चुकी है। इससे ज्ञात होता है कि कम से कम सं. १७५२ तक ""भाव- प्रकाश'' की रचना हो चुकी थी। दूसरी बात यह सिद्ध होता है कि वार्ताओं की रचना हरिरायजी के आदरणीय किसी आचार्य वंशज विद्वान महानुभाव द्वारा ही हुई है, जिसके गूढ भावों के स्पष्टीकरण के लिए हरिरायजी जैसे विद्वान को श्रम करना पड़ा। यदि उनकी रचना गो. गोकुलनाथजी के अतिरिक्त किसी साधारण वैष्णव द्वारा हुई होती, तो उस पर शायद हरिरायजी अपनी कलम नहीं उठाते।


४. वार्ताओं पर बल्लभ वंशीय गोस्वामी वर्ग और पुष्टि संप्रदाय के समस्त वैष्वणगण गुरु वाक्य के समान श्रद्धा रखते हैं। यदि उनकी रचना किसी साधारण वैष्णव द्वारा हुई होती, तो ऐसा संभव नहीं था।


५. वार्ताओं में संप्रदाय की उस रहस्यपूर्ण सेवा- प्रणाली और बल्लभ कुल के घर की उन अप्रसिद्ध रीति रिवाजों का उल्लेख हुआ है, जो आचार्य वंशज किसी गोस्वामी के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों के लिए अज्ञात हैं। इससे भी सिद्ध है कि उनकी रचना किसी साधारण व्यक्ति द्वारा न होकर बल्लभ- कुलोत्पन्न किसी विद्वान आचार्य द्वारा हुई है।


६. श्री- गोकुलनाथजी के सम सामयिक श्री देवकीनंदन कृत "प्रभु चरित्र चिंतामणि' में वार्ताओं का उल्लेख है और श्रीनाथ भ द्वारा सं. १७२७ के लगभग रचा हुआ चौरासी वार्ता का "संस्कृत- मणिमाला' नामक संस्कृत अनुवाद प्राप्त है। इन दोनों ग्रंथों के कारण वार्ताओं की प्राचीनता और उनका महत्व स्वयं सिद्ध है।

७. हरिरायजी के शिष्य विट्ठलनाथ भ ने सं. १७२९ में "संप्रदाय कल्पद्रुम' नामक ग्रंथ की रचना की थी। उसमें गोकुलनाथजी के रचे हुए ग्रंथों में वार्ताओं का भी इस प्रकार उल्लेख किया गया है --

"वचनामृत चौबीस किय, दैवीजन सुखदान।
बल्लभ बिट्ठल वारता, प्रगट कीन नृप मान।।''


उपर्युक्त दोहा से चौरासी और दो सौ बावन वार्ताओं का संकेत मिलता है।

"चौरासी वार्ता' की गोकुलनाथजी के समय की लिखी हुई प्राचीन प्रति प्राप्त है और उस पर सं. १७५२ में लिखा हुआ "भाव प्रकाश' भी प्राप्त है, किंतु "दो सौ बावन वार्ता' की मूल अथवा भाव प्रकाश वाली इतनी प्राचीन प्रति अभी तक प्राप्त नहीं हुई है। वार्ताओं की प्रामाणिकता के संबंध में जितनी शंकाएँ दो सौ बावन वार्ता पर की गई हैं, उतनी चौरासी वार्ता पर नहीं, इसलिए दो सौ बावन वार्ता की प्राचीन प्रति उसकी प्रामाणिकता के लिए आवश्यक है। कहते हैं कि दो सौ बावन वार्ता की प्राचीन प्रतियाँ कई स्थानों में सुरक्षित हैं, किंतु वे हमारे देखने में नहीं आई। सं. १७५२ में लिखी हुई "भाव प्रकाश युक्त ""अष्टसखान की वार्ता'' की प्राप्ति से ऐसा अनुमान होता है कि दो सौ बावन वार्ता पर भी हरिरायजी ने "भावप्रकाश' लिखा होगा। जहाँ तक अष्टछाप विषयक दो सौ बावन वार्ताओं का संबंध है, उन पर "अष्टसखान की वार्ता' के कारण हरिरायजी का भाव प्रकाश उपलब्ध ही है।

 

 

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