ब्रज-वैभव  

ब्रज का स्वरुप एवं सीमा

सांस्कृतिक ब्रज


१६वीं शती के गौड़ीय विद्वानों ने विविध पुराणों में आये हुए श्री कृष्ण के लीला स्थलों का अनुसंधान कर ब्रज की सीमाऐं और उसके विस्तार को वतलाने का प्रयास किया है। उन विद्वानों में श्री रुप गोस्वामी और नारायण भटट अग्रणी हैं। श्री रुप गोस्वामी कृत मथुरा महिमा (महात्म्य) और श्री नारायण भटट कृत 'ब्रज भक्ति विलास' में ब्रज के जिस धार्मिक स्वरुप का वर्णन किया है, वह उसके साम्प्रदायिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक सभी रुपों का परिचायक है।

'ब्रज भक्ति विलास' की रचना स. १६०९ में ब्रज के राधा कुण्ड के तट पर सम्पन्न हुई थी। इसमें ब्रज के समस्त बन उपबन, तीर्थस्थल और उसके देवी-देवताओं का विस्तारपूर्वक वर्णन प्रस्तुत किया गया है। इसी ग्रन्थ में भटट जी की अन्य महान कृति 'ब्रहत ब्रज गुणोत्सव' का भी नामोल्लेख मिलता है। उस २६ हजार श्लोक सम्पन्न विशाल ग्रन्थ में इन्हीं विषयों का विशेष कर ब्रज यात्रा के समस्त स्थानों का विशद वर्णन होना बतलाया गया है। १ ? यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। २ ? गोड़ीय विद्वानों के फलस्वरुप ही ब्रज के उस वृद्ध स्वरुप का निश्चय होता है। जिसे हमने 'सांस्कृतिक ब्रज' का नाम दिया है। श्री रुप गोस्वामी ने पुराणों के आधार पर शोधपूर्ण निष्कर्ष निकाला है कि ''याथावर से शौकरी बटेश्वर पर्यन्त मथुरामंडल की स्थिति है।'' ३ ? याथावर की पहिचान मथुरामंडल के उत्तर में स्थित 'जेबर' ग्राम से की है। इस प्रकार जेबर से बटेश्वर तक सास्कृतिक ब्रज का विस्तार हुआ।

जेबर बुलन्दशहर के खुर्जा तहसील का दक्षिणवर्ती एक छोटा ग्राम है और बटेश्वर आगरा जिला में एक प्राचीन धार्मिक स्थल है। बटेश्वर का प्राचीन नाम 'शौरपुर' था, जिसकी स्थापना भगवान श्रीकृष्ण के पितामह शूर अथवा शूरसेंन द्वारा की हुई कही जाती है। इसके आस-पास श्रीकृष्ण के पूर्वजों और वंशजों के अनेक चिन्ह वतलाये जाते हैं, जिनमें पदमखेड़ा और औधखेड़ा कदाचित श्रीकृष्ण के पुत्र प्रधुम्न और पौत्र अनिरुद्धि के नामों पर वसाये गये हैं। इसका एक धाट 'कंस कगार' कहलाता है, जो श्रीकृष्ण के अत्याचारी मामा कंस के नाम से सम्वधित है। जैन और बौद्ध धर्म के प्राचीन धर्म ग्रन्थों में भी शौरपुर का नामोल्लेख मिलता है। छत्र कवि ने अपनी 'सुधासार' नामक रचना में अपने आश्रयदाता भदावर नरेश की आज्ञा से की थी जिसमें बटेश्वर की स्थिति का उल्लेख इस प्रकार है-

मथुरामंडल में बसै, देश भदावर ग्राम।

ऊखल तहाँ प्रसिद्ध महि, क्षेत्र बटेश्वर नाम।।

श्री रुप गोस्वामी ने मथुरा से २१-२१ कोसों पर स्थित चार कोण बतलाते हुए उनके निकटवर्ती बनों का नामोल्लेख किया है। इस प्रकार मथुरामंडल का विस्तार उन्होंने दूसरे डग से ८४ कोस बतलाया है। जहाँ धार्मिक ब्रज का सम्पूर्ण विस्तार ८४ कोस का माना गया है, वहा भटट जी के मतानुसार सांस्कृतिक ब्रज का भी ८४ कोस विस्तार होने का केवल यही अभिप्राय है कि उसकी चारो दिशाओं के प्रत्येक छोर केन्द्र स्थल मथुरा से २१-२१ कोस पर स्थित हैं। नारायण भटट का उल्लेख निम्न प्रकार है-

चतुरशीति क्रोशाढयां चतुदिक्षु विराजिता।

मथुरा मण्डल त्क्रोशमेकविंशतिकं भजेत्।।

चतुद्रिक्षु प्रयाणेन पूर्वादिक्रमो गणत्।

पूर्व भागे स्थितं कोण वनं हास्याभिधानकं।।

भागे च दक्षिणे कोणं शुभ जन्हुवनं स्थितं।

भागे च पश्चिमे कोणे पर्वताख्यवनं स्थितं।।

भागेम्हुत्तर कोणस्यं सूर्यपत्तनं संक्षकं।

इत्येता व्रज मर्यादा चतुष्कोणमिधापिनी।। ४

उक्त श्लोकों में मथुरामंडल की चारों सीमाओं के चारों वनों का नामोल्लेख हुआ है। इनमें पूर्वी सीमा का हास्य वन और दक्षिणी सीमा जन्हु वन तो सभी उद्धरणो में समान हैं। इसमें पश्चिम और उत्तर के कोणों पर स्थित बनो के नाम क्रमशः पर्वत वन और सूर्यपत्तन वन अंकित किये गये हैं, जवकि नारायण भटट के ही अन्य उद्धहरणों में वे नाम क्रमशः अपहरि वन और सोनहद वन हैं। ५ ? तथा ग्राउज के उद्धहरणों में वे नाम क्रमशः उपहार वन और भुवन वन हैं। ६ इन समस्त वनों की पहिचान करना इस समय अति कठिन है क्योंकि वे अव कट चुके हैं तथा उनके स्थान पर विविध नामों के नवीन ग्राम वस चुके हैं।


१. ब्रज भक्ति विलास, पृ. १७७

२. वाजपेयी के. डी. 'चैतन्य मत और बृज साहित्य', पृ. ६३

३. मथुरा महात्म्य, श्लोक - १५५

४. ब्रज भक्ति विलास, छटे अध्याय का प्रथम अंश

५. वाजपेयी, के. डी. वृज विस्तार का वर्णन, पृ. ६

६. वाजपेयी, के. डी. वृज विस्तार का वर्णन, पृ. ४

 

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