बिहार

Bihar


बिहार एक सांस्कृतिक परिचय

डॉ. कैलाश कुमार मिश्र

क्या कभी आपने सोचा है कि बेरोजगारी, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, बाढ़, सुखार और लोगों का जत्थे से जत्थे में हो रहे पलायन, इत्यादि समस्यायों से घिरे राज्य बिहार का भारत के प्राचीन परम्परा से लेकर आजतक क्या योगदान रहा है। जनक, जरासंध, कर्ण, सीता, कौटिल्य, चन्द्रगुप्त, मनु, याज्ञबल्कय, मण्डन मिश्र, भारती, मैत्रेयी, कात्यानी, अशोक, बिन्कुसार, बिम्बिसार, से लेकर बाबू कुंवर सिंह, बिरसा मुण्डा, बाबू राजेन्द्र प्रसाद, रामधारी दिन्कर, नार्गाजून और न जाने कितने महान एवं तेजस्वी पुत्र एवं पुत्रियों को अपने मिट्टी में जन्म देकर भारत को वि के सांस्कृतिक पटल पर अग्रणी बनाने में बिहार का सर्वाधिक स्थान रहा है।

सांस्कृतिक भौगोलिक क्षेत्र को ध्यान में रखते हुए इस प्रदेश को निम्नलिखित पॉकेटों मे रखकर समझा जा सकता है :

(क) मगध

(ख) मिथिला एवं वैसाली

(ग) अंग

(ध) भोजपुर

सत्य की खोज करते एवं सच्चे ज्ञान की आकांक्षा में भटकते सिद्धार्थ को कोइ भी ज्ञान-वान बनाने में समर्थ न हो सका परन्तु गया के नजदिक एक बृक्ष के नीचे जब एक अनपढ़ भीलनी ने यह गीत गाया :

बीणा के तार को इतना मत खींचो

कि तार ही टूट जाये,

बीणा के तार को इतना ढीला भी न छोड़ो

कि आबाज ही न निकले

एकाएक वे समझ गये कि मध्यम-मार्ग ही सही मार्ग है। और उसी दिन से सिद्धार्थ गौतम बुद्ध हो गये। अब जरा एक-एक सांस्कृतिक क्षेत्र को समझने का प्रयास करें।

(क) मगध

मगध का भारतीय संस्कृति के निर्माण में जो योगदान है, उसे कौन भुला सकता है?

वैदिक साहित्य के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में बिहार तीन भागों में विभाजित था - मगध, अंग और विदेह (या मिथिला)।

वैदिक साहित्य के प्राचीन अंग ॠगवेद सारिता में कीटक नाम से जिस प्रदेश की निन्दित चर्चा मिलती है, उसका बहुत कुछ संकेत मगध से ही माना जाता है। बहुत संभव है, उस समय तक यह प्रदेश आर्येतर जातियां का निवास स्थान रहा हो और मध्य एशिया से आगत आर्य जाति की सभ्यता का आलोक वहाँ न पहुँचा हो। मगध में व्यवस्थित रुप से राज्य की स्थापना का उल्लेख वाल्मीकिरामायण के 32 वें अध्याय में मिलता है। इस राज्य के प्रथम संस्थापक आर्यवसु थे। जिनके बाद चन्द्रगुप्त और महान अशोक जैसे सम्राटों की समृद्ध परम्परा में यह शासित होता रहा । सभ्यता और सांस्कृतिक गरिमा की दृष्टि से भारतीय इतिहास में मग्ध का अत्यधिक महत्त्व रहा है।

छठी शताब्दी ई. पूर्व में मगध राज्य वर्तमान पटना एवं गया जिलों में के स्थान पर स्थित था । मगध की राजधानी गिरिव्रज थी जो अपने वैभव के लिए प्रसिद्ध थी। मगध में सर्वप्रथम राजवंश की स्थापना व्रहद्रथ ने की थी। कालान्तर में वह अत्यन्त शक्तिशाली राज्य बना था तथा समीपवर्ती समस्त राज्यों पर मगध का अधिकार हो गया।

महात्त्मा बुद्ध के समकालीन मगध के शासक क्रमशः विम्बिसार एवं उसका पुत्र अजातशत्रु थे। महात्त्मा बुद्ध के समय में चार प्रमुख राजतन्त्रः मगध, कौशल, वत्स और अवन्ति थे। उल्लेखनीय है कि इन चारों राजतन्त्रों में से मगध-साम्राज्य का ही विकास हो सका, क्योंकि वीर, प्रतापी एवं योग्य शासकों के अतिरिक्त मगध के एक साम्राजवादी शक्ति के रुप में उभरने में अनेक परिस्थितियों ने भी सहायता की।

मगध पर शासन करने वाला प्राचीनतम ज्ञात राजवंश वृहद्रथ-वंश है। महाभारत पुराणों से ज्ञात होता है कि प्राग्-ऐतिहासिक काल में चेदिराज वसु के पुत्र बृहदर्थ ने गिरिव्रज को राजधानी बनाकर मगध में अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया था। दक्षिणी बिहार के गया और पटना जनपदों के स्थान पर तत्कालीनमगध - साम्राज्य था । इसके उत्तर में गंगानदी, पश्चिम में सोननदी, पूर्व में चम्पा नदी तथा दक्षिण में विन्ध्याचल पर्वतमाला थी। बृहद्रथ के द्वारा स्थापित राजवंश को बृहद्रथ-वंश कहा गया। इस वंश का सबसे प्रतापी शासक था, जो बृहद्रथ का पुत्र था। जरासंध अत्यन्त पराक्रमी एवं साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का शासक था। हरिवंश पुराण से ज्ञात होता है कि उसने काशी, कोशल, चेदि, मालवा, विदेह, अंग, वंग, कलिंग, पांडय, सौबिर, मद्र, काश्मीर और गांन्धार के राजाओं को परास्त किया। इसी कारण पुराणों में जरासंध को महाबाहु, महाबली और देवेन्द्र के समान तेज वाला कहा गया है। बृहद्रथवंश का अन्तिम शासक रिपुंजय था, जिसकी हत्या उसके मन्त्री पुलिक ने कर दी तथा अपने पुत्र बालक को मगध का शासक नियुक्त किया। इस प्रकार बृहद्रथवंश का पतन हो गया। कुछ समय पश्चात् महिय नामक एक सामन्त ने बालक की हत्या करके अपने पुत्र बिम्बिसार (544-492 ई.पू.) को मगध की राजगद्दी पर बैठाया।

वास्तविक अर्थों में मगध साम्राज्य का उत्कर्ष बिम्बिसार के समय ही प्रारम्भ हुआ। बिम्बिसार हर्यक-कुल का शासक था। उसने एक ओर वैवाहिक-सम्बन्ध के द्वारा काशी को और दूसरी ओर विजय द्वारा अंग को मगध में विलीन कर, मगध को साम्राज्य निर्माण के पथ पर अग्रसर कर दिया।

बिम्बिसार के विशाल साम्राज्य की राजधानी गिरिव्रज थी। ह्मवेनसांग के अनुसार गिरिव्रज में बहुधा अग्निकाण्ड की घटनाएं होती रहती थीं, अतः बिम्बिसार ने एक नवीन नगर की स्थापना की जिसे राजगृह कहा गया। हलांकि, पार्टयान राजगृह की स्थापना का श्रेय अजातशत्रु को देता है।

राज्य की सम्पूर्ण शक्ति स्वयं में निहित होने के पश्चात् भी बिम्बिसार निरंकुश शासक नहीं था। राजकीय समस्याओं का निराकरण वह प्रमुख अधिकारियों के अतिरिक्त गांव के प्रमुखों (ग्रामिकों) की सलाह लेने के पश्चात् ही करता था।

बिम्बिसार के पश्चात् उसका पुत्र अजातशत्रु ( 492 ई० पूर्व - 462 ई० पूर्व ) मगध के राजसिंहासन पर आसीन हुआ। वह बड़ा ही सशक्त शासक प्रमाणित हुआ। अजातशत्रु का शासन हर्यक वंश का चरमोत्कर्ष काल था । उसने कोशल, वैशाली, अवन्ति राज्यों को वहाँ के राजा को पराजित कर मगध साम्राज्य में मिला। 462 ई० पूर्व में अजातशत्रु की मृत्यु हो गयी।

अजातशत्रु के पश्चात् उसका पुत्र उदयन राजगद्दी पर बैठा। उदयन ने मगध राज्य के केन्द्र में स्थित पाटलिगांव में नई राजधानी का निर्माण कराया जो पुष्पपुर अथवा पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) के नाम से प्रसिद्ध हुई। उदयन षड़यन्त्र के द्वारा मारा गया। उदयन के उतराधिकारी अयोग्य एवं दुर्बल शासक थे। इनके शासन से जनता त्रस्त थी, अतः जनता ने क्रोधवश पूरे राजपरिवार को निष्कासित कर नागदशक के योग्य आमात्य शिशुनाग को मगध के सिहांसन पर आरुढ़ किया।

इस प्रकार मगध में हर्यक कुल का पतन हो गया तथा शिशुनाग-वंश ( 414 ई० पूर्व - 346 ई० पूर्व ) की स्थापना हुई।

शिशुनाग के राज्यकाल में मगध-साम्राज्य अत्यन्त विशाल हो गया। शिशुनाग के पश्चात् उसका पुत्र कालोशोक ( 396 ई० पूर्व - 368 ई० पूर्व ) अथवा काकवर्ण शासक बना। कालाशोक के पश्चात् उसके दस पूत्रों - भद्रसेन, कोरण्डवर्ण, मुंगर,  सवर्ंजट, जालिक, उभक, संजय, नन्दिवर्धन तथा पंचमक - ने 22 वर्षों तक शासन किया तत्पश्चात् महापद्म ने शिशुनाग वंश को समाप्त कर मगध में नन्द-वंश की सथापना की।

मगध में नन्द-वंश की सथापना से एक नवीन युग का आर्विभाव हुआ। इतिहास में पहली बार एक ऐसे साम्राज्य को लांघ गईं। उसी समय से भारतीय इतिहास में क्षत्रिय रक्त पर अभिमान करने वाले राजवंशों की अखण्ड परम्परा का अन्त हो गया क्योंकि नन्दवंशीय शासक उच्च कुल के न थे।

महापद्म अत्यन्त शक्तिशाली शासक था। अपनी शक्ति के द्वारा ही उसने मगध-साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। पुराणें के अनुसार वह 'अनुल्लंघित' शासन वाला था, जिसने दिग्विज्य से एकछत्र राज्य की स्थापना की थी। उसने अनेक क्षत्रिय राजवंशों का उन्मूलन किया था। इसी कारण उसे 'अखिलक्षत्रान्तकारी' और 'क्षत्रविनाशकृता' कहा गया। उसके आठ पुत्र थे। इस प्रकार नौ नन्द राजाओं का उल्लेख बौद्ध साहित्य में मिलता है जिनके नाम इस प्रकार हैं - उग्रसेन (महापद्म नन्द), पण्डुक, पण्डुगति, भूतपाल, राष्ट्रपात, गौविषाणक, दशसिद्धक, कैवर्त और धननन्द। महापद्म के इन आठों पुत्रों ने 322 ई० पूर्व तक राज्य किया। इनमें नन्द-वंश का अन्तिम शासक धननन्द सबसे प्रतापी सिद्ध हुआ।

सिकन्दर लौटने के पश्चात मगध की स्थिति चरमरा गई। उसी समय चन्द्रगुप्त मौर्य ( 322 ई० पूर्व ) का आविर्भाव हुआ। भारत के राजनीतिक व्योम पर चन्द्रगुप्त मौर्य के रुप में एक उदीयमान प्रकाशपूर्ण नक्षत्र का उदय हुआ जिसने भारतीयों का नेता व राजा बनकर उत्तर - पश्चिमी भारत से सिकन्दर के युनानी सैनिक - गढ़ों और पवन - क्षत्रयों को नष्ट-भ्रष्ट कर भारत के उस भू-भाग को वैदेशिक परतन्त्रता की बेड़ियों से मुक्त किया तथा 'अधार्मिक' नन्द-वंश के राजा को उन्मूलित कर मगध में अपने नए राजवंश की प्रतिस्थापना की, जो भारतिय इतिहास में मौर्य-वंश ( 322 ई० पूर्व - 184 ई० पूर्व ) के नाम से सुविख्यात है। मौर्यों का आगमन इतिहासकारों के लिए अन्धकार से प्रकाश की ओर का मार्ग प्रशस्त करता है, कालक्रम की सहसा निश्चित एवं स्पष्ट होने लगता है तथा भारत के छोटे-छोटे टुकड़ों को मिलाकर एक विशाल साम्राज्य का उदय होता है।

चन्द्रगुप्त मौर्य एक कुशल सेनानायक व वीर योद्धा था। चन्द्रगुप्त और चाणक्य दोनों का ही प्रमुख उद्देश्य नन्द-वंश का विनाश कर मगध के राजसिंहासन पर अधिकार करना था। उसने अपने 24 वर्ष के शासनकाल में जितनी सफलताएं प्राप्त की उतनी उपलब्धियां इतने अल्पकाल में किसी अन्य भारतीय शासक ने प्राप्त नहीं की। वह ऐसा प्रथम व्यक्ति था जिसने न केवल यूनानी व वैदेशिक आक्रमणों को विफल किया वरन् भारत के बड़े भू-भाग को युनानी अधिपतय से मुक्त कराया। चन्द्रगुप्त ने सर्वप्रथम भारत को राजनीतिक एकता प्रदान की। हेमचन्द्र राय चौधरी ने लिखा है : 'चन्द्रगुप्त की राजनैतिक और सैनिक सफलताएं काफी उदान्त हैं, पर इनसे उसकी सफलताओ की इतिश्री नहीं हो जाती है। इस महायोद्धा ने एक ओर जहाँ एक कुख्यात राजवंश के शासन से देश के एक भाग को मुक्त किया वहीं दूसरी ओर देश के दूसरे भू-भाग को विदेशी दासता से मुक्त कराया। वह एक ऐसे साम्राज्य का निर्माता था जिसमें सम्पूर्ण भारत तो नहीं उसका अधिकांश भाग आ गया था। वह युद्ध में जितना स्फूर्तिवान था, शान्ति की कला में भी उतना ही कर्मठ था। वह भारत का प्रथम ऐतिहासिक सम्राट है।

चन्द्रगुप्त के पश्चात् 298 ई० पूर्व में उसका पुत्र बिन्दुसार ( 298 ई० पूर्व - 273 ई० पूर्व ) मगध के राजसिहांसन पर आसीन हुआ।

जैन-ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि बिन्दुसारके माता का नाम दुर्धरा था। परिशिष्टपर्वन ् नामक ग्रन्थ उसके जन्म के विष्य में एक रोचक प्रसंग आया है। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को विष का अभ्यास डालने के उद्देश्य से उसको भोजन में अल्पमात्रा में विष देना आरम्भ किया था। इसका उद्देश्य यह था कि यदि कोई शत्रु विष अथवा विषकन्या द्वारा चन्द्रगुप्त की हत्या करना चाहे तो वह सफल न हो सके। एक दिन चन्द्रगुप्त की पत्नी दुर्धरा ने भी चन्द्रगुप्त के साथ भोजन किया, किन्तु विष के प्रभाव से उसकी मृत्यु हो गई। उस समय रानी दुर्धरा गर्भवती थी। चाणक्य ने शीध्र ही उसके उदर को चिरवाकर बच्चे को निकलवा दिया। इस बालक के मस्तक पर विष की एक बूंद लगी थी, अतः उसका नाम बिन्दुसार रक्खा गया।

बिन्दुसार एक शक्तिशाली एवं योग्य शासक था उसके शासनकाल में मौर्य - साम्राज्य ने अत्यधिक उन्नति की। उसे प्रौढ़, धृष्ट, प्रगल्भ, प्रियवादी व संवृन्त कहा गया है। बिन्दुसार की मृत्यु 273 ई० पूर्व में हुई।

बिन्दुसार की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र अशोक ( 269 ई० पूर्व - 232 ई० पूर्व ) शासक बना। अशोक का शासनकाल भारतीय इतिहास का अत्यन्त गौरवमयी काल था क्योंकि उस समय में अशोक ने अपनी असाधारण क्षमताओंसे भारत को सर्वोन्मुखी उन्नति प्रदान की। यही कारण है कि अशोक को न केवल भारत के वरन् विश्व के महानतम शासकों में से एक माना जाता है। साम्राज्य विस्तार, प्रशासनिक व्व्यवस्था, धर्म-संरक्षण, हृदय की उदारता, कला के विकास एवं प्रजा-वत्सलता, आदि प्रत्येक दृष्टिकोण से अशोक का स्थान सर्वोच्च है। उसने अपने सुविशाल साम्राज्यके प्रशासन को पूर्ण बनाने तथा अपनी प्रजा को सुखी बनाने के लिये जो बिड़ा उठाया था, इसके लिए वह कोई कोशिश बाकी नहीं छोड़ी।

अशोक ने कलिंग पर आक्रमण 261 ई० पूर्व किया। कलिंग के निवासियों ने अत्यन्त वीरतापूर्वक मौर्य-सेना का सामना किया। अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए वहाँ की स्रियों व पुरुषों ने प्राणों की बाजी लगा दी। अतः यह युद्ध अत्यधिक रक्तरंजित हुआ। इस युद्ध का वर्णन अशोक के तेहरवें शिलालेख में मिलता है। इस अभिलेख के अनुसार, "राज्याभिषेक के आठ वर्ष पश्चात् देवताओं के प्रिय सम्राट प्रियदर्शी (अशोक) ने कलिंग पर विजय प्राप्त की। इस युद्ध मे 1,50,000 व्यक्ति व पशु बन्दी बनाकर कलिंग से लाए गए व 1,00,000 व्यक्ति युद्ध भूमि में मारेे गए तथा उनके कई गुणा अन्य कारणों से नष्ट हो गए। युद्ध के पश्चात् महामना सम्राट ने दया के धर्म की शरण ली, इस धर्म से अनुराग किया और इसका सम्पूर्ण साम्राज्य में प्रचार किया। इस विनाश की ताण्डव लीला ने, जो कि कलिंग राज्य को जीतने में हुआ, सम्राट के हृदय को द्रवित कर दिया व पश्चाताप से भर दिया।" यह इस प्रकार अशोक ने युद्ध की नीति सदैव के लिए त्याग दिया तथा दिग्विजय के स्थान पर 'धम्म-विजय' को अपनाया।

अशोक के मृत्यु के पश्चात् उसके किसी भी उत्तराधिकारी के उसके समान योग्य न होने के कारण, शीध्र ही मौर्य-साम्राज्य का पतन हो गया। अशोक के मृत्यु के बाद उसका पुत्र कुणाल शासक बना। कुणाल के पश्चात् दशरथ शासक बना। दशरथ के पश्चात् सम्प्रति, शालिशुक, देववर्मन व शतधनुष शासक हुए। उनके पश्चात् बृहद्रथ के सेनापति पुष्पमित्र शुंग ने उसकी दुर्बलता का लाभ उठाकर 184 ई० पूर्व में उसकी हत्या कर दी तथा राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार 184 ई० पूर्व में मौर्य-साम्राज्य का पतन हो गया।

36 वर्ष तक शासन करने पश्चात् 148 ई० पूर्व में पुष्पमित्र की मृत्यु हो गई, किन्तु इन 36 वर्षों में अनेक उपलब्धियां प्राप्त कर उसने भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान अर्जित किया। पुष्पमित्र एक महान सेनानी, कुशल संगठनकर्त्ता तथा दूरदर्शी शासक था। वह एक वीर साम्राज्यवादी व योग्य शासक ही नहीं वरन् महान साहित्य एवं कलाप्रेमी भी था। पुश्पमित्र ने ब्राह्मणधर्म के विलुप्त हो रहे वैभव को पुनः गौरव के उच्च शिखर तक पहुँचाया तथा भारत में पुनः वैदिक संस्कृति को सशक्त बनाया। पुष्पमित्र ने वैदिक-धर्म को राजधर्म घोषित किया तथा पाली के स्थान पर संस्कृत को राजभाषाका रुप प्रदान किया। इस प्रोत्साहन के परिणामस्वरुप पातंजलि का महाभाष्य तथा मनु की मनुस्मृति की रचना हुई। इस प्रकार राजनैतिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में उसने महत्त्वपूर्ण उपलब्धियां प्राप्त की। पुष्पमित्र शुंग की मृत्यु 148 ई० पूर्व में हुई।

शुंग-वंश के शासकों ने 112 वर्ष तक राज्य किया।शुंग-वंश के शासकों में अग्निमित्र, वसुज्येष्ठ, तत्पश्चात् अग्निमित्र का पुत्र वसुमित्र शासक बना। वसुमित्र के पश्चात् क्रमशः आंध्रक, पुलिण्डक, घोष, वज्रमित्र, भाग तथा देवभूति ने शासन किया। देवभूति शुंग-वंश का अन्तिम शासक था। देवभूति की हत्या उसके मंत्री वासुदेव कण्व ने कर दी तथा कण्व-वंश की स्थापना की । इस प्रकार शुंग-वंश की समाप्ति 72 ई० पूर्व हुई।

कण्व-वंश में चार शासक वसुमित्र, भूमिमित्र, नारायण मित्र व सुशर्मा हुए जिन्होने क्रमश 9, 14, 12 10 वर्ष शासन किया। इस प्रकार कण्व-वंश ने कुल 45 वर्ष तक ( 72 ई० पूर्व - 27 ई० पूर्व ) शासन किया। कण्व-वंश के शासक भी ब्राह्मण थे, अतः उन्होने भी सम्भवतः ब्राह्मण- धर्म के पुरुत्थान के लिये प्रयतेन किया होगा।

27 ई० पूर्व में कण्व-वंश के पतन के पश्चात् सातवाहन-वंश का प्रादुर्भाव हुआ।

हर्ष की मृत्यु के पश्चात् उसके राज्य के विधटन में मगध की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। मगध में इस समय उत्तरवर्ती गुप्त शासक शासन कर रहे। हर्ष के शासन काल में मगध हर्ष के साम्राज्य का ही एक भाग था, जिसकी पुष्टि चीनी-साहित्य एवं बाणकृत हर्षचरित्र से होती है। 

हर्ष की मृत्यु के बाद भारत में व्याप्त अराजकता से लाभ उठाते हुए मगध के तत्कालीन गुप्त शासक आदित्यसेन, जो अत्यन्त पराक्रमी एवं वीर था, ने उत्तरी भारत के विस्तृत भू-भाग पर अधिकार कर लिया।

कहा जाता है कि गुप्तवंश का भी मगध एवं पाटलिपुत्र से गहरा सम्बन्ध था। पुराणों में एक श्लोक मिलता है जिसके आधार पर कतिपय विद्वान गंगा-यमुना के दोआब तथा मध्यदेश को गुप्तों का मूल निवास-स्थान मानते हैं। श्लोक कुछ प्रकार है :

 

अनुगंगा प्रयागं च साकेतं मगधांस्तथा। 

एतन् जनपदान् सर्वान् मोक्षन्ते गुप्त वंशजः ।।

अर्थात् गुप्त-वंश के लोग गंगा नदी के किनारे स्थित साकेत (कोसल), प्रयाग एवं मगध, आदि जनपदों का उपभोग करेंगे। पुराणों के अनुसार प्रारम्भिक गुप्त शासकों का उत्तर-प्रदेश व मगध पर एकाधिकार था। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि गुप्तों का आदि निवास-स्थान पूर्वी उत्तर-प्रदेश व पश्चिमी मगध का कुछ भू-भाग था। गुप्त-वंश के संस्थापक का नाम "गुप्त" ही था। श्रीगुप्ते ने लगभग 275 ई० से 300 ई० तक राज्य किया।

श्री गुप्त की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र घटोत्कच ( 300-319 ई० ) शासक बना। घटोत्कच के पश्चात् उसका पुत्र चन्द्रगुप्त प्रथम शासक बना। चन्द्रगुप्त के समय की प्रमुख घटना अपने राज्यारोहन के समय उसके द्वारा एक नवीन सम्वत् की स्थापना करनी थी जो गुप्त-सम्वत् के नाम से जाना जाता है। चन्द्रगुप्त ने इस सम्नत् की स्थापना 319-20 ई० में की थी।

चन्द्रगुप्त प्रथम के पश्चात् उसका पुत्र समुद्रगुप्त (325 ई० - 375 ई०) शासक बना। समुद्रगुप्त भारत के महानतम सम्राटों में से एक था तथा वह अपनी उपल्बिधियों के कारण विश्व-इतिहास में अविस्मरणीय है। आर० सी० मजुमदार समुद्रगुप्त का जीक करते हुए कहते हैं : "उसके (समुद्रगुप्त) सिक्कों और अभिलेखों के अध्ययन से हमारे समक्ष एक ऐसे वज्रदेह शक्तिशाली सम्राट की मूर्ति आ खड़ी होती है जिसकी शारीरिक ओज के अनुरुप बौद्धिक एवं सांस्कृतिक सम्पन्नता ने उस नवयुग का सूत्रपात्र किया जिसमें आर्यावर्त ने, नवीन, राजनैतिक चेतना और राष्ट्रीय एकात्त्मता पांच सदियों के राजनीतिक विघटन और परकीय आधिप्तय के बाद, पुनः उपलब्ध की और नैतिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक और भौतिक समृद्धि की वह उच्चता अधिगत की जिसने इसे भारत का स्वर्णयुग बना दिया - ऐसा स्वर्णयुग जिसकी ओर अगणित भावी पीढियां मार्ग-दर्शन और प्रेरणा के लिए सदा देखने वाली थीं। 

समुद्रगुप्त के मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र रामगुप्त शासक बना। रामगुप्त ने चार-पांच वर्ष तक शासन किया।

रामगुप्त के असामयिक निधन के बाद उसका छोटा भाई चन्द्रगुप्त द्वितीय ( 380 ई० - 412 ई० ) शासक बना। वह अपने महान पिता का महान पुत्र साबित हुआ। शासन और समर दोनों में चन्द्रगुप्त द्वितीय की ख्याति और कीर्ति उसके पिता समुद्रगुप्त की भांति ही सुप्रसिद्ध एवं सुचर्चित है। गुप्त सम्राटों में समुद्रगुप्त की तरह स्वभुज बल-विक्रम द्वारा समस्त शत्रुओं को उन्मूलित कर सर्वराजोच्छेता की उपाधि ग्रहण करने वाला वही दूसरा सम्राट हुआ है। चन्द्रगुप्त द्वितीय एक महान् विजेता, अतुल पराक्रमी, और धर्मनिष्ठ शासक था, यह निर्विवाद है।

चन्द्रगुप्त द्वितीय के पश्चात् उसका पुत्र कुमारगुप्त (413 ई० - 455 ई०) सिंहासनारुढ़ हुआ। उसने साम्राज्य विस्तार की ओर ध्यान न देकर अपने शासनकाल के प्रारम्भ में साम्राज्य के साधनों का प्रयोग सार्वजनिक एवं धार्मिक कृत्यों में किया। कुमारगुप्त के साम्राज्य में चतुर्दिक सुख एवं शान्ति का वातावरण विद्यमान है

कुमारगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उसका प्रतापी पुत्र स्कन्दगुप्त सिंहासनारुढ़ हुआ। स्कन्दगुप्त गुप्तवंश का अन्तिम प्रतापी शासक था। स्कन्दगुप्त के उत्तराधिकारी उसकी मृत्यु ( 465 ई० ) के पश्चात् एक शताब्दी तक भी शासन न कर सके व 500 ई० के लगभग शक्तिशाली गुप्त-साम्राज्य का अन्त हो गया।

गुप्त वंश के पतन के पश्चात् जिन कतिपय राजवंशों का प्रादुर्भाव हुआ, उसमें परवर्ती गुप्त-वंश भी था। गुप्तशासकों के पश्चात् शासन करने के कारण इसे उत्तरकालीन गुप्त-वंश तथा मगध में शासन करने के कारण इस वंश को मगध गुप्त-वंश के नाम से भी जाना जाता है। मगध ही इस वंश का मूल स्थान प्रतीत होता है। अभिलेखों में इस वंश के निम्नलिखित आठ शासकों के नाम उल्लेख है: (1 ) कृष्णगुप्त; (2 ) हर्षगुप्त; (3 ) जीवितगुप्त;  (4 ) कुमारगुप्त; (5 ) दामोदरगुप्त; (6 ) महासेनगुप्त; (7 ) माधवगुप्त; (8 ) आदित्यसेन।

कन्नोज के राजा यशोधर्मा ने परवर्ती गुप्त-वंश के अन्तिम शासक जीवितगुप्त पर आक्रमण किया तथा उसे परास्त कर गुप्त-वंश का अन्त कर दिया। इस प्रकार शक्तिशाली परवर्ती गुप्त-राजवंश का आठवीं शताब्दी में पतन हो गया।

लोक विद्या के क्षेत्र में भी मगध का अपना स्थान रहा है। इस सन्दर्भ में दो गीत मगही लोकगीतों का वर्णन अनिवार्य हो जाता है। प्रथम लोकगीत में नायक-नायिका का प्रकृति-प्रांगण में स्वच्छंद विलास को दर्शाया गया है। कथा वस्तु यह है कि किसी रम्य नदी के किनारे गूलर का बगीचा है ! साजनी पके-पके मनोहरी गूलर को तोड़ता है, सजनी खाती है। उन्माद का वातावरण है ! नायक नेत्र-संकेत से गोरी के हृदय का हाल पूछता है। गौरी के हृदय में कम्पन के साथ लज्जा होती है। नायिका का यौवन भी तो अनोखा है। उसमें वैसी ही चिकनाहट है, जैसी पीपल के कोमल पत्ते में और घी। फिर नाय लुब्ध क्यों न हो।

दूसरा लोकगीत सन्दर्भ एक विरहिणी नायिका की प्रेम-परीक्षा है। वर्णन कुछ यो है: परदेश बाबा गयेथे, तो द्वार पर चन्दन के वृक्ष में सुखद हिंडोला लगा कर गये थे। प्रियतम परदेश गया है, तो सदा   लिये दु:ख वारिधि में डुबो कर। वह छाती में वज्र-किवाड़ लगा गया है और उस पर भी सांकल चढ़ा गया है। आम और महुआ के सघन बाग में विरहिणी सुन्दरी खड़ी है। उसके सुकोमल कपोलों पर अश्रु की बूँदें ढ़लक रही हैं। द्रवित-बटोही ने पूछा- सुन्दरी तुम्हारी आंखें मोती क्यों बरसा रही हैं? अश्रुसिक्त सुन्दरी ने कहा - तुम्हारे ही जैसा कृशांग मेरा कान्त है। उसने परदेश जाकर मुझे विसरा दिया है। पथिक की आँखें चमक उठीं। उसने कहा - अपने ब्याहता (पति) की आशा छोड़ दो। लो डाला-भर सोना ! मोतियों ॠंगार करो ! सतवन्ती गौरा ने कहा - तुम्हारे सोने में आग लग जाये। मोतियों पर वज्र गिरे। अपने प्रियतम की प्रतीक्षा मैं अनन्त काल तक करुँगी। मेरा जी कहता है वह व्यापार से लौटेगा और सोने से हमरा और घर का ॠंगार करेगा।

 

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