डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी स्मारक व्याख्यान

प्रस्तुति:  नारायण दत्त शर्मा

इस वर्ष भाषाप्रेमी एवं मर्मज्ञ जनों को एवं भाषाविद् प्रो० विद्यानिवास मिश्रके दो व्याख्यानों को सुननेका एक स्वर्णिम अवसर प्राप्त हुआ, जिसका आयोजन लब्धप्रतिष्ठित न्यायविद् डॉ० लक्ष्मीमल्ल सिंघवीकी अध्यक्षामें दिनाङ्क २८ फरवरी एवं १ मार्च, २००२ को इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कलाकेन्द्र, नई दिल्ली ने किया।

पक्रियाके रुपमें भाषा और संस्कृति तथा लोक एक सतत प्रक्रिया

प्रथम व्याख्यानका विषय था - संस्कृति एवं भाषाके सम्बन्धके बारेमें पश्चिमकी दो अवधारणाओंका निरुपण करनेके उपरान्त भारतके सन्दर्भमें भाषाकी अन्तर्निहित शक्ति वाक् का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं- वाक् रचना मात्रका मूल प्रकल्प या आर्किटाईप है। साथ ही वह सृष्टिका न केवल बीज है बल्कि उसका प्रस्फुरण भी है। व्यक्त उच्चरित भाषाकी परिशुद्धता यहाँ पर महनीय मूल्य है। दूसरे प्राणियोंसे मनुष्य इसीलिए भिन्न है कि वह व्यक्तवाक् है। दूसरे प्राणियोंके पास वाक् है पर अस्फुट है। मनुष्यके पास ऐसी भाषा है जिसका विश्लेषण सम्भव है, उसमें पूर्वापर सम्बन्धका विवेचन सम्भव है। दूसरे शब्दोंमें उसका व्याकरण किया जा सकता है। इस व्यक्त वाक्को प्रयोगसे ही प्रसिद्धि मिलती है और वह किसी तर्ककी अपेक्षा नहीं करती।

अन्तमें इस विषयाका उपसंहार करते हुए कहते है- भारतीय चिन्तन मूलत: वाक्केन्द्रीत चिन्तन है, इस चिन्तनके तीन आधारोंका विश्लेषण करनेके पश्चात् स्पष्ट करते हैं- भारतीय संस्कृतिमें यदि कोई संस्था है तो वह व्यक्ति नहीं, संस्थान नहीं, व्यक्तिसमूह नहीं, चर्च या सिनागाग जैसी कोई संस्था नहीं, यदि संस्था है तो केवल मन:पूतवाणी। वह वाणी मन्त्रराशि हो, ॠषियोंका उपदेश हो, साधकोंके द्वारा दिए गए दृष्टान्त हों, सिद्ध कवियोंकी रचना हो, शब्दराशि हो- वही एक मात्र संस्था है। उसे एक मात्र संस्था कहनेका अर्थ यह नहीं होता कि वह कोई- एक अविवर्तनीय राशी है। उसको जिस प्रकार एकाग्र ध्यानसे पाया गया है, उसी प्रकारके समग्र ध्यानसे समझा भी जाना चाहिए। तब उसके नवीन अर्थकी सम्भावना अपने आप खुलेगी। इसीलिए भारतीय संस्कृतिमें जितनी शास्रकी महिमा है उससे कम महिमा लोकव्यवहारमें आए हुए शब्दकी नहीं है या लोकके चिन्तन-मननसे निकले हुए शब्दकी नहीं है। यही वाक् समस्त कलाओं, विद्याओं, शिल्पोंको एकसूत्रमें बाँधती है; क्योंकि समस्त कला, शिल्प, विद्या-शब्दनिबन्ध है। उसके पीछे कोई न कोई शब्दराशी है, कोई आख्यान है, कोई वाचिक सन्दर्भ है। निष्कर्ष रुपमें कह सकते हैं कि वाक् ही संस्कृति है। वाक् ही परम्परा है। ऐसी परम्परा है जो अपनी पूर्णताके लिए अपना अतिक्रमण करनेके लिए भी तत्पर रहती है।

भाषाकी बात कुछ देरके लिए स्थगित करके संस्कृतिके बारेमें कहना प्रारम्भ करते हैं- संस्कृति नवसृजित शब्द है, कल्चरका हिन्दी संवादी। इसके समस्त अर्थोंका बोध पहले धर्म शब्दसे होता था। संस्कृतिमें निहित अर्थसे कुछ अधिक धर्मसे बोधित होता था। संस्कृति पद्धति है, प्रक्रिया है, घटमानता है। यही धर्मके भीतर समाहित ॠतकी भी व्यञ्जना है। इस प्रकार भाषामें कुछ दिया हुआ मिलता है कुछ दिए हुए के आधारपर बनता रहता है। उसी प्रकार संस्कृति भी कुछ दी हुई रहती है, कुछ साध्य होती है। जितनी दी हुई रहती है उससे पूर्णता का बोध नहीं होता, उसे पूर्णतर बनानेकी प्रवृति ही संस्कृति को समाजको भीतरी स्वभाव बतलाते हुए तथा उदाहरणों द्वारा उसे पुष्ट करते हुए संस्कृत भाषाके सम्बन्ध में बहुत ही मार्मिक वक्तव्य देना प्रारम्भ करते हैं- जिस परिवेशसे संस्कृत जुड़ी हुई थी, विशेषत: पाणिनिकालीन, वह परिवेश खेतिहर परिवेश था और उसी खेतिहर पुरिवेशमें खेतीकी सम्पन्नावस्था यज्ञोंके विधान थे अथवा अमावस्या या पुर्णिमाके अवसरपर यज्ञोंके विधान थे। उन यज्ञोंमें व्यवहृत भाषाकी परिशुद्धता पर बल था। पाणिनिकी भाषा एक ओर ठोठ देहातकी भाषाकी उदाहरणके रुपमें लेती है, दूसरी ओर यज्ञमें प्रयुक्त निश्चित और परिनिष्ठित भाषाका उदाहरण देती है। साथ ही पाणिनि अपनी भाषाको उदाहरण रुपमें लेतीहै,दूसरी ओर यज्ञ में प्रयुक्त निश्चित और परिनिष्ठित भाषाका उदाहरण देती है। साथ ही पाणिनी अपनी भाषाके उतार-चढावकी भाषिक चिन्ताओंका भी ध्यान रखते हैं। अकेले अष्टाध्यायी भाषा और संस्कृतिके परस्पर सम्बन्धोंको रुपायित करनेमें समर्थ है। जोकहते हैं कि पाणिनिने भाषाको नियमोंसे जकड़ दिया वे अष्टाध्यायीका मर्म ही नहीं समझतेष।

भाषाके अर्थके सम्बन्धमें प्रो० मिश्रने आगे कहा- पाणिनिने कहीं भी भाषाके अर्थमें संस्कृत शब्दका नामोल्लेख नहीं किया। उन्होंने भाषाके दो स्तर रेखांकित किए - १. भाषा २. छान्दस अर्थात् वेदमें या अध्ययनमें प्रयुक्त वेदमन्त्रकी भाषा। लौकिक व्यवहारकी भाषाको उन्होंने भाषा कहा है। आगे और अधिक स्पष्ट करते हुए कहतै हैं संस्कृत शब्दका प्रयोग उन्होंने एक सूत्रमें स्पष्ट निर्देशके साथ किया है कि सम् और कृ के बीच का आना गुणवत्ताका बोधक है। अत: संस्कारका अर्थ ही है गुणाधान है। समीचीन कृति ही संस्कृति है और समीचीन करने वाला ही संस्कार है। योग्य बनाने वाला ही संस्कार है। इस संस्कार प्रकियामें गुणाधानके साथ दोषका अपाकरण भी निहित है। जैमिनिके मीमांसासूत्रमें लगभग यही बात कही गई है।

संस्कृति और कल्चर शब्दका भेद करते हुए प्रो० मिश्र कहते हैं- इस प्रकार संस्कृतिका भारतीय दृष्टसे अर्थ निरन्तर जाँचने और शोधित करनेकी प्रकिया ही होता है। इसके प्रतियोगी कल्चर शब्दका अर्थ खेतीकसे सम्बन्ध रखता है। जमीनको बोने योग्य बनाना ही कल्चर है। दूसरे शब्दोंमें किसी भी समुदायको रचनाशील बनाना संस्कृति है।
आगे प्रो० मिश्रने संस्कृतिकी इस परिभाषाको मीमांसामें दिए गए धर्मकी परिभाषा (चोदनालक्षणो धर्म:) के सन्निकट बताकर धर्मके मर्मको विस्तारके साथ स्पष्ट किया और पुन: भाषाके महनीय मूल्यको इन शब्दोंमें व्यक्त किया- भाषाको समझना एक महनीय मूल्य माना गया है। अपने आपमें मनुष्यके उन्नयनके सबसे साधक उपायोंमें से यह एक है। भाषाको इतना महत्व देना मनुष्य के भीतर ठीक संवाद स्थापित करने की आकांक्षा को महत्व देना है।

 

दूसरे दिनके व्याख्यानका विषय था- पक्रिया के रुपमें भाषा और संस्कृति तथा लोक एक सतत प्रक्रिया । इस अवसर पर प्रो० मिश्रने वाक्यपदीयकार भर्तृहरिके प्रतिपादनकी संक्षिप्त रुपरेखा देनेसे पूर्व भूमिका प्रस्तुत करते हुए कहा- पाणिनिके व्याकरणमें निहित तत्वदर्शनको वाक्यपदीयके रचयिता भर्तृहरिने उपपत्तिपूर्वक समझाया। यह अवश्य है कि भर्तृहरिका वाक्यपदीय उनके पूर्ववर्ती विचारकोंके मतोंका पर्यालोचन होनेके साथ-साथ संकलन भी है, इसलिए कहीं कहीं यह समझना बड़ कठिन हो जाता है कि मत भर्तृहरिका है या केवल उद्धरण मात्र है और तब उस दशामें ऊपरी तौरसे एक अन्तर्विरोध दिखने लगता है, किन्तु समग्र दृष्टिसे विचार करनेपर यह प्रामाणिक रुपमें कहा जा सकता है कि भर्तृहरिने व्य्वस्थित रुपमें जो सिद्धान्त प्रतिपादित किए हैं, उनमें अन्तर्विरोध नहीं है, एक अनवच्छिन्न संगति है।

भर्तृहरिके प्रतिपादनकी रुपरेखा बतानेके उपरान्त उसका सार संक्षेप प्रो० विद्यानिवास मिश्र इन शब्दोंमें व्यक्त करते हैं- भर्तृहरिके शब्दब्रह्मवादकी गहराईमें जानेपर यह स्पष्ट हो जाता है कि भर्तृहरिका वाक्यपदीय वैदिक अर्थात् निगम-चिन्तन तथा तान्त्रिक अर्थात्-आगम-चिन्तनको जोड़ने वाली कड़ी है। यह दर्शन काश्मीर शैव प्रत्यभिज्ञा, निम्बार्कके द्वेैताद्वेतके मध्यबिन्दुपर एक ओर अवस्थित है तो दूसरी ओर बौद्धोंके विज्ञानवाद और नैयायिकों-मीमांसकोंके बाह्यार्थवादके बीच अवस्थित है। कदाचित् यह भर्तृहरिके अत्यन्त संगत और सुस्पष्ट अर्थस्वरुपके सम्बन्ध प्रस्थापनाका ही प्रभाव है कि उनके उत्तरवर्ती बौद्ध दार्शनिक रत्नकीर्ति अपोहको अतद्व्यावृत्ति विशिष्ट विधि माननेको विवश हो जाते हैं।

वाक्यपदीयके आधारपर शब्द और वागर्थका विश्लेषण करते हुए व्याकरणशास्रकी उपयोगिताका वर्णन इन शब्दोंमें करते हैं- इतना सब कहनेका उद्देश्य इतना ही था कि भाषाको समझने और समझानेके पीछे हमारे देशमें निरन्तर गहरा विचार-मन्थन हुआ है और उसका फल यह है कि चाहे कोई भी शास्र हो, उसके अर्थकी सूक्ष्मताको पकड़नेके लिए व्याकरणका अवलम्बन आवश्यक हो जाता है अर्थात् शब्दोंकी तहमें जानेके लिए व्याकरणकी समझ अपरिहार्य हो जाती है। चाहे ज्योतिष हो, कलाशास्र हो, संगीतशास्र हो, नाट्यशास्र हो, दर्शनशास्र हो- किसी भी शास्रके तहमें जाना तब तक असम्भव है जब तक संस्कृतभाषाके संश्लिष्टताको व्याकृत न किया जाए, उसे अद्घाटित करके न रखा जाए। जहाँ कहीं एक ही शब्दमें एकके अतिरिक्त अर्थोंकी उद्भावना होती है उसे भी समझनेके लिए व्याकरण आवश्यक हो जाता है।

विष्णुधर्मोत्तर पुराणमें प्रसंग अर्थात् डिस्कोर्सके (अधिकरण, योग, पदार्थ आदि) भेदोंकी संक्षिप्त व्याख्या करनेके उपरान्त लोकके सम्बन्ध में बोलना प्रारम्भ करते हैं- इस विचारको सामने रखनेका एक मात्र प्रयोजन यह था कि लोकको अशिक्षित लोकके रुपमें मत ग्रहण करें। जिस लोककी अवधारणा हमारे मनमें है यह वाचिक परम्परासे संस्कार प्राप्त है। यह भाषा-व्यावहारमें बड़ा सचेत है। एसा सचेत लोक अपने आप संस्कारी होता है, वह केवल अपनी चिन्ता नहीं कहता, जिसके सम्पर्क में रहता है, जिसके साथ रहता है उसकी भी चिन्ता करता है। वह लोक आँख-कान खुले रखता है। इसलिए यह आकस्मिक नहीं है कि उस वाचिक परम्पराके लोकमें लोककी शब्द-सम्पदा तथाकथित शिक्षित समाजको लज्जित करने वाली होती है।

लोकभाषामें पवनवाची शब्दोंकी अर्थछटाएँ अलग-अलग हैं। इसी प्रसंगमें हवा, बतास, बयार, पवन, बगूला, आँधी, अँधड़, बवण्डर, बुढिया आँधी, घुमरी, चकरी झाँक, लूक, भूतरा, फगुनहट, सिरवाई, पुरवाई, आदि शब्दोंके अर्थ बताते हुए अन्तमें कहते हैं- ये उदाहरण यह बताने के लिए पर्याप्त होंगे कि लोक अपने पर्यावरणके प्रति सजग है और उस लोककी इस भीतरी सम्पन्नताको जो ध्यानमें नहीं रखता, उसकी संस्कृतिके मर्मको नहीं समझेगा, उसके भाषा-सामर्थ्यको भी नहीं समझेगा।

आजके समयमें लोककी स्थिति कैसी है, इस विषयका निरुपण करते हुए कहते हैं- ऐसे सम्पन्न लोकपर आज एक नया दबाव है तकनीकीकरणके नामपर समचलीकरण है जिसमें कोर-कगार सब सपाट कर दिए जाते हैं। आप स्टेशनपर या विमानमें कभी-कभी वायवीय घोषणा सुनते हैं तो लगता है जैसे इस घोषणाका मनुष्यसे कोई सम्बन्ध नहीं, वह बड़ी अप्रीतिकर लगती है। तकनीकीपर दबाव होता है समूह-उत्पादनका, इसलिए वह विविधताओंको नहीं रहने देती।

आगे और स्पष्ट करते हुए कहते हैं- अब व्यक्ति और व्यक्तिके बीच यन्त्र आ गया है। एक झीनी पारदर्शी चादर, विद्युत यान्त्रिकी की तन गई है। सीधे आदमी-आदमीकी बातचीत कम होती जा रही है। एक परिवारके सदस्य तक, आपसमें कहल करनेके लिए भी भाषाका इस्तेमाल नहीं करना चाहते क्योंकि टी०वी० के सामने सभी मुनिकी तरह एकाग्र हो जाते हैं। देखनेमें तो यह तपोवनकी स्थिति जान पड़ती है पर यह है बहुत भयावह। प्रो० मिश्र अपने दूसरे व्याख्यानका समापन इस शब्दोंके साथ करते हैं- कभी आगके आविष्कारके साथ ही भाषाका आविष्कार हुआ, आगके चारों ओर बैठने, उसके आलोकमें एक-दूसरेके चेहरे और उनकी चेष्टाएँ देखनेसे अपनी-अपनी बात सुनानेकी आकांक्षा जगी होगी, उसीने भाषाका रुप लिया। भाषा आज भी आगकी उसी ऊष्माकी परिधिमें गर्माहट दे सकती है क्योंकि भाषा दूसरे तक पहुँचनेकी नहीं, दूसरेके अपने तक पहुँचनेकी आकांक्षा है और संस्कृति भी दूसरेमें अपनी पहचान पानेकी विविध प्रक्रियाओंका आविष्कार है। यह सब साँसधारी, आँखवाले कानवाले आदमीके माध्यमसे ही सम्पन्न होगा। उसीमें चैतन्यका स्फुलिङ्ग आहुति पाकर धुंधके ढके हुए पूरे जंगलका आलोक बनेगा।

 

डा ॅ० सुनीति कुमार चटर्जी का जन्म सन् १८९० में हुआ तथा उत्तम शिक्षा प्राप्त करके भाषाविद् तथा भारतीयविद्याशास्री (Indologist) के रुप में विश्वस्तर पर ख्याति प्राप्त की। सन् १९११ में अंग्रेजी आॅनर्स से उन्होंने प्रथम श्रेणी तथा प्रथम स्थान प्राप्त किया। १९१३ में अंग्रेजी में ही उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम०ए० परिक्षा दी तथा सन् १९१९ में प्रेमचन्द रायचन्द स्कॉलरशिप् प्राप्त की। लन्दन विश्वविद्यालय में उन्होंने "Indo-European linguistics-origin and Development of the Bengali Language" विषय पर शोधकार्य किया। सन् १९२१ में उन्होंने लन्दन विश्वविद्यालय से ही डी० लिट्० की उपाधि प्राप्त की।

भारत लौट कर १९२२ से १९५२ तक कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर पद पर आसीन रहे। सन् १९६१ में बंगीय साहित्य परिषद् में प्रेजिडेण्ट् पद ग्रहण किया तथा सन् १९६४ में नेशनल प्रोफेसर बने। इसके अतिरिक्त भारत सरकार के द्वारा उन्हें संस्कृत कमीशन का प्रेजिडेण्ट् बनाया गया तथा १९६९ से १९७७ तक वे साहित्य अकादमी के प्रेजिडेण्ट् परपर कार्य करते रहे।

भाषा के गम्भीर अध्ययन तथा उससे सम्बन्धित प्रकाशित ग्रन्थोंने उन्हें प्रसिद्धि दिलाई। उनकी "Origin and Development of the Bengali Language" नामक पुस्तक विद्यार्थियों के बीज काफी प्रसिद्ध रही।

ग्रीक, लैटिन, फ्रेञ्च, इटेलियन्, जर्मन, इंग्लिश, संस्कृत, परशियन तथा दर्जनों आधुनिक भारतीय भाषाओंके ज्ञाता थे।

उन्होंने १५ पुस्तकें बंगला भाषामें, २१ पुस्तकें अंग्रेजी भाषामें तथा ७ पुस्तकें हिन्दी भाषा में प्रकाशित की। भाषातत्वज्ञ एवं मनीषी विद्वान् डॉ सुनीतिकुमार चटर्जी ने संस्कृत भाषा में अनेक लेख लिखे। वे एक अच्छे संस्कृत कवि भी थे।

डॉ सुनीति कुमार चटर्जी स्मारक व्याख्यानके अन्तर्गत तीन अन्य व्याख्यान विगत वर्षोंमें किए जा चुके हैं। इस श्रृङ्खलामें प्रो० शिवेन्द्र कुमार ने निम्नलिखित दो व्याख्यान दिए- 1. Suniti Kumar Chatterjee's Perception of language and linguistics. 2. A Socio-linguist's view of multilingualism is India. डॉ विश्वम्भरनाथ पाण्डेयने दोनों सत्रकी अध्यक्षता की।

दूसरे स्मारक व्याख्यान के अन्तर्गत डॉ देवी प्रसाद पट्टनायक ने निम्नलिखित दो विषयोंपर पर दो सम्भारण दिए- 1. Origin and Development: critique of origin and development of Bengali language. 2. Comparatie Reconstruction. व्याख्यानके दोनों स्रकी अध्यक्षता आचार्य श्रीविद्यानिवास मिश्रने की।

तीसरे स्मारक व्याख्यान में भाषाविज्ञान के प्राध्यापक प्रो० सत्यरञ्जन बनर्जी निम्नोक्त दो विषयोंपर दो सम्भाषण दिये- 1. Suniti Kumar Chatterjee's Contribution to Indo-European linguistics 2. Origin and Development of the linguistic thoughts and ideas of the Indo-European people. विदुषी डॉ सरोजिनी महिषी ने इस सत्र की अध्यक्षता की।

लेखसूची